Saturday 29 November 2014

नयनन में रुक जाओ 
कुछ दिन !
फिर स्वप्न 
यदि 
हो भी जाओ तो
क्या !!!




तुम्हारे अल्फ़ाज़ 
रस घोलते हैं कानों में,
तुम्हारे सन्देश 
ऊष्मा से भर देते हैं, 
जिंदगी जैसे नया 
मोड़ ले लेती है
एक ताज़गी के साथ
हर सुबह ~~~~~ :))))

!! ~~ हेमंत ~~ !!

~~~~~~~

हेमंत ...,
पुनः आगमन तेरा
फिर
नवल रूप में
विस्तृत अवनि पर
स्वर्णिम लालिमा
प्रखर हो रही
प्राची के द्वार से
उदित और श्रृंगारित
कर रही प्रबुद्ध
प्रकृति को ....
बर्फीले गिरि भी
छलछलाते है तेरी
ऊष्मा से
हे
दिवाकर ~~~~~
--------
तंरगिणी तट
का शीतल सलिल छूकर ~~~~
पुलिन पर चमकती
ओस के कण - कण -------
मंद पवन सहला गयी
फ़िर मुझे !!!

--------
अनहद नाद
सघन कानन का
कलरव कोयल का
पपीहे की तान
नित् - दिन साँझ - सकारे
तरु भी बांह पसारे
पुलकित हो रहे
संग -संग हमारे ~~~~

वंदना दुबे ------
आसमान ने ओढ़ा
लिहाफ
श्वेत- बादलों का फिर,
 इन दिनों ~~~~
सुबह - सवेरे ~~~~
सूरज की अरुणाई
में भी नमी समायी
इन दिनों ~~~
जरा झाँककर -झरोखों
से देखा बाहर
गुलाबी धूप
गुनगुना रही है,  ♬♬♬♬♬♬

इन दिनों ~~~~~
जो तुम आ गए
करीब
खूबसूरत हो जायेगी
जिंदगी फिर
 इन दिनों ~~~~ 

Tuesday 28 October 2014

सपने ~~~
========
सपने हज़ारों साल से कौतूहल बने हुए हैं !!! हज़ारों साल से इनपर शोध हो रहा है, पर पहेली !
उतनी ही गूढ़ रहस्य और उलझी गुत्थी बनी हुयी है ....... आज भी विज्ञान-विधा के लिए, उतनी ही अनबूझ पहेली। बंद नयनों के पीछे कई स्वप्न उभरते हैं, नयन खुले तो स्वप्न अधूरा !!!
स्वप्न का रिश्ता भूत, भविष्य और वर्तमान सभी से सामान होता है, जैसी सोच होती है, सपने भी उन्ही को साकार करते हैं, रंग बिरंगे मधुर सपने, गुलों पर ओस की बूंदों से नाजुक,सुमन से महकते, विरह में तड़फते , जीवन के हर रस से ~~~ रंगारंग !!
जिन ख़्वाबों का हम सचेतन अवस्था में गला घोट देते हैं, उन ख़्वाबों को हम सुप्तावस्था में सच होता पाते हैं। हमारे पुराणों में भी विदित है कि केवल मानव जाति ही स्वप्न का आनंद उठा पाती है। स्वप्न में अपने आराध्य के दर्शन से मन पुलकित हो उठता है। कभी हम काम के बोझ से थके हों तो सुहाने सपने मन को आत्म-विभोर कर देते हैं हर सपना कुछ कहता है, स्वप्न के सार को समझना गूढ़ कला है।
हर स्वप्न कुछ-न कुछ कहता है। कुछ सपने जीवन में खुशियों की लहर भर देते हैं। तो कुछ उदास कर देते है हमें ! सपनों का सीधा संबंध अंतर्मन से होता है। जब हम नींद में होते है, तब हमारी देह अंतर मन से अलग होती है क्योंकि आत्मा कभी सोती नहीं। जब मानव शयनावस्था में होता है तो उसकी पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ उसका मन सुप्तावस्था में तल्लीन और व्यक्ति का मस्तिष्क पूरी तरह शांत रहता है। उस अवस्था में व्यक्ति को एक अनुभव होता है, जो उसके जीवन से संबंधित होता है। उसी अनुभव को स्वप्न कहा जाता है। स्वप्न के सम्बन्ध में कई भ्रांतियाँ भी है जिन्हें हम शुभ- अशुभ का सूचक मानते हैं।
१) सपने में खिले हुए गुलाब के फूल देखने से मनोकामना पूर्ण होती है।
२) पतंग उड़ाना -व्यापार में लाभ।
३) सपने में रसभरे फल खाना अत्यंत शुभ माना गया है।
४) मक्खन - यह प्रसन्नता का सूचक है।
सपनों को ऊंचाई दो, नभ की विशालता दो, अचेतन मन कि मीठी फुहार है, कोई सीमा नही, कोई बंधन नही...... सपनों के संग हम आज़ाद होते हैं.......... उड़ सकते हैं ~~~~~ चहक सकते हैं ****** ख़्वाबों में जी सकते हैं, गहन वन में घूम सकते हैं--------- खुश रहिये, पुलकित रहिये और खूब सपने देखिये। _/\_
मधुर बोल;

मेरे मनहर !!!
मेरे पास हैं बस
मधुर बोल;

कभी हँसती मैं
कभी रोती मैं,
कभी जगती मैं
कभी खोती मैं !

पर

पाती जो कुछ भी
 मैं,
बाँट तुम्हें सब देती हूँ !

और
मन ही मन
खुश होती हूँ !

राग -अनुराग
से भरा है मन
चिर -विस्मृति सी
 मैं
रहूँ मगन !

 तुममें खुद को
 पा लेती हूँ ,
 दुःख को सुख भी
 कर लेती हूँ !!!

मेरे पास हैं बस
मधुर -बोल;

मधु -रस से
गूजेंगे तुम्हारे
कानों में
विस्मित से रह जाओगे   !!!

वंदना दुबे

Monday 13 October 2014

हुड - हुड की
अनूगूँज चहुंओर छायी ~~~

कार्तिक में सावन
घिर आया
प्रबुद्ध प्रकृति
सुन्दर परिवेश
हरित -पुलिन
अलसाये से तरु भी भीगे
दूधिया सलिल हर ओर ~~~~

टप -टप
टपाटप,
सघन मेघ
घिर - घिर
कारे -कारे  ~~~~~
मधुर - मधुर
मिया मल्ल्हार की तानों सा
श्रृंगारित हुए पात - पल्लव
वनस्पतियाँ अंगराई लेने लगी
भीगा मन मेरा भी  ~~~~~

Monday 6 October 2014

!! साहित्य !! __/\__
===========
साहित्य का भी अपना निराला संसार है। न जाने कितनी विधाएँ, कितना ज्ञान, कितने अनुभव, कितना इतिहास, कितने प्रयोग ~~~ का अथाह सागर है। कहीं भाषा तो कहीं इतिहास हमें भाव- विभोर कर देता है | कथानक या रचनाकार की रचना तभी सफलता के कदम चूमती है, जब उसे उचित सम्मान या माहौल मिलें। वैसे भी हमारा भारतवर्ष प्राचीन काल से साहित्य और संस्कृति की खदान रहा है। भारतीय समाज की वास्तविकता का असल चित्रण हमें "प्रेमचंद" की रचनाओं में दृष्टिगत होता है ऐसा कोई पहलू नही जो उनकी नज़रों से ओझल हुआ हो। वहीँ महादेवी जी ने नारी की छवि के हर रूप पर प्रकाश डाला है, फणीश्वर नाथ रेणू, निरालाजी, प्रसाद जी इन सभी ने समाज और प्रकृति को अपनी लेखनी की भागीरथी से हम सबको डुबकियां लगवायी हैं, इन्हें जितना भी पढ़ो उतना कम। शब्दों की मिठास मन में शहद घोलती है। और पाठको की आत्मा में विचार - पुंज जगाती है।
ह्वेनसांग जब भारत आये थे तो कई वर्ष भारत में बिताने के बाद कई विश्व- विद्यालय में अध्ययन कर यहाँ की संस्कृति और साहित्य को अपने साथ स्वदेश ले गये थे ।
मुझे भी अपने संस्कृति, साहित्य, वेद, पुराणों, भगवत गीता रामचरितमानस से विशेष लगाव है। तुलसीदास जी ने आदर्श का अलख जगाया तो वही "प्रेमचंद" जी ने यथार्थ से परिचय कराया उनका साहित्य मर्मभेदी है, जो आपके नैनों को भिगो देता है। अच्छा साहित्य समाज को एक सकारात्मक मोड़ देता है | प्राचीन साहित्यकारों जैसी भाषिक सरंचना और अभिव्यक्ति कहीं दिखाई नही देती, जबकि उन दिनों सुविधाएं भी इतनी नही थी लेखन कार्य एक गहन - तपस्या स्वरूप था। किताबे अपना अनुभव बांटती हैं बाल्यकाल से पुस्तकें मेरी अभिन्न मित्र रही हैं। हम जितना भी पढ़ें, ये जिज्ञासा और पिपासा बढ़ते ही जाती है।
प्रेम रंग....
जीवन में उमंग
पिया जब तुम संग
महके अंग -अंग 
पहनू चूनर सतरंग
मन में मीठी तरंग ~~~~~
बरसाये सावन प्रेम रंग
भीगे मेरा अंग - अंग
चित्त तुममें रंगारंग ~~~~
.
ग्ध मैं
मनहर
तुझ पर !
तेरी हर कला पर !
तेरे शब्दकोष सलिल से
अविरल प्रवाह सी बातों पर ~~~~
~~~~~
तेरे प्रखर तेज़
और ललाट पर उभरे
जलबिंदु पर ooo
चारों ऒर तुम्हारे
एक परिधि सी
डोलना चाहूँ
और करूँ बस
मूक वंदना तेरी _/\_
हरी बेल सी ऊग आई....
फ़लक पर यूँ
उमड़ आये
बादल बन के 
क्या ढूढ़ते हो "तुम "
हाथों की इन लकीरों में
घंटों निहारते हो
इन हथेलियों को .....
पूछा मैंने
********
समय के अवसान में
इस एकांत शाम में
क्लांत मन से
अश्रु भर कर नयन में
डबडबाये -----
तुमने बस इतना कहा !!!
*******
इन रेखाओं में
मेरा नसीब नहीं
सुन ढुलक गया
मेरा भी एक आसूँ
भिगो गया कोर नैनों की .... :((((
*******
देखते ही देखते
एक हरी बेल सी ऊग आई
इन हाथों में
बरबस ही
मैं मुस्कायी तुम्हें
दिखाया उस अनोखी बेल को ......!!!

पहाड़ों का नैसर्गिक सौंदर्य और जन का पलायन रोज़गार के लिए ~~~
" ऊँची - ऊँचीं पर्वतमाला
खिलखिलाती सरिता
अतभुत - अप्रतिम
अनंत सौन्दर्य
पलायन फिर भी !!!
रोक न पाया
जन - जन को "
"उत्तरं यत समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद भारतं नाम, भारती तस्य संस्कृति ।।
पुराणों में शिखरों को देवतुल्य, देवात्मा माना गया है प्रचुर सम्पदा से परिपूर्ण, अतुल्य गुणों का खजाना,आदिदैविक शक्तियां, अतभुत नयनाभिराम दृष्य , शुद्ध जलवायु , विहंगम दृश्य, इठलाती तरंगिणी,उँचे - ऊँचे देवदार,सॉल, मनमोहक बनफूल जहाँ तक नयन जाएँ समूची वसुधा सुसज्जित, पुलकित, प्रफ्फुलित !!!
इतने अप्रतिम सौंदर्य के बाद भी रोज़गार की खोज में लोंगों का पलायन महानगरों की ओर !!! और सच भी है ये नज़ारे हमारी भूख नही मिटा सकते ?
उच्च शिक्षा का आभाव, काम की कमी,सुविधाओं का आभाव, प्राकृतिक आपदायें झिंझोड़ रही हैं जन - जन को , इस तरह वह दिन दूर नही जब निर्जन हो जाएंगे हमारे पहाड़। रोज़गार की कमी, महानगरों की चकाचौंध, भौतिकता, मॉल का आकर्षण युवा वर्ग को खीच रहा है लगातार।
हिमालय की तराई से ~~ कन्या कुमारी तक और कच्छ से कछार तक जो पर्वत- मालायें भारत वर्ष में है वे अपनी मिटटी और जलवायु के अनुरूप भरपूर प्राकृतिक सम्पदाएँ ( फल, फूल, शहद, केशर, कीमती लकड़ी, बहुमूल्य आयुर्वेदिक औषिधियाँ, खनिज, चाय - काफी ) समय -समय पर देती रहती हैं। जिनका हम सब भरपूर दोहन करते हैं।
रामराज्य में राम ने, गिरि - कानन गुफाओं में जाकर आदिवासियोँ ( केवट, शबरी, निषादराज ) को गले लगाया तदुपरांत ही राजाराम के साथ - साथ दीन - बंधु भी कहलाये और त्रेता युग की जड़ी - बूटियाँ संजीवनी कहलायी। प्राकृतिक उपहारों की अवहेलना वर्तमान में तेज़ी से हो रही है और पाश्चात्य संस्कृति रौब जमाकर छा रही दिनोदिन हम सब पर।
सरकार, NGO , देश के प्रतिष्ठित औद्योगिक घरानों को और समाज सेवी संस्थाओं को इस ओर ठोस कदम उठा कर, छोटे - छोटे कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिये, उच्च शिक्षा संस्थान खोलने चाहिये, आयुर्वेदिक औषधियां अनुसन्धान हेतु वांछित सहयोग निधि प्रदान करना चाहिये, तभी हम इस जन पलायन को रोक पायेंगे जो पहाड़ी लोग अपनी सत्यता, सहजता, सरलता , सुंदरता , निश्छलता, निर्मलता के लिये पहचाने जाते हैँ। ~~~~~
वंदना दुबे
ये बरखा !!!
ज़रा ठहर
पहले न बरस
झमझम - झमाझम
की वो आ न सके .....

=========

तू बरस
रुनझुन - रिमझिम
बूँद - बूँद
मद्धम - मद्धम ....
पिया आयें .....
फ़िर तू बरस ...

===========
घनन - घनन
घनघोर घिर - घिर
घनकाल सी
बरसना ....
छुप जाऊं मैं
उनके पहलूँ में
और वो रुक जाये
फ़िर जा न सके....:)))

भोर - भये
सावन भादों बीत 
गये अब
अरुणोदय की अरुणाई
छिटकती
खप्परों की काई पर
यूं लगा मुझे
बीते बरखा की
सुध ले रही हो
जैसे !!!
शुभ इतवार मित्रों !!!
हमारी खुशियाँ हमारी    !!! हम सब स्वतंत्र हैं और खुशियों का आनंद उठाने का हक़ भी हमारा। प्रयत्न रहे हर पल कि किसी की बात से आहत न हो, ना ही अपने मष्तिस्क में बेवजह उसे स्थान दें, हम प्रसन्न हैं और हमारी प्रसन्नता दूसरों पर निर्भर नही होनी चाहिए। प्रतिदिन हमारे जीवन में ऐसा कुछ घटित होता है जो हमें पुलकित या दुखित करता है. .... प्रसन्नता वह भाव है जो अंतर्मन से जागृत हो, वह किसी के अधीन हो ही नही सकता, आनंद हमारे स्वभाव में होना चाहिए कोई भी बाह्य भाव हमें प्रभावित नही कर सकता। प्रतिदिन मेरा यही अथक प्रयास होता है कि किसी एक चेहरे पर मुस्कराहट ला सकूँ। और इससे मुझे आंतरिक ख़ुशी मिलती 
सुनो ....
देखो ना ....
सावन - भादों
बीत गए अब
सुबह -सवेरे 
मद्धम - मद्धम
मदमाती
गुलाबी ठण्ड
ने दस्तक दी है !!!
पंख होते तो
नन्ही चिड़िया सी
ले बाहों में
उमंग ~~~
तरंगित मन से
उड़ आती तुम तक
मगन - मगन !!!
या फिर
चारों दिशाओं तक
क्षितिज की लाली तक,
टकराती
इठलाती
और ठहर वहीँ जाती !!!


खुशियाँ स्थायी नही होती !!! कुछ समय के लिए हमें भावविभोर करने आती है जीवन में, हमारी खुशियाँ इस बात पर भी निर्भर कि हम कितने एकाग्रचित्त हैं, कोई बाहरी बातें या परिस्थितियां हम को प्रभावित न कर पायें। 
बचपन में हम सहृदय और कोमल मन के होते थे। नभ की विशालता, इंद्रधनुषी रंग , देवदार की छटा, निर्झर का मधुर नाद, उड़ती पतंग हमें रोमांचित और उल्लासित करते थे, अब हम दिनोदिन जड़ होते जा रहे हैं, लगता है सब देखा है परिपक्क्वता हम पर भारी। कोमल मन कठोर हो रहा शनैः शनै। समाज और परिस्थितियों से जूझकर हम और भी ज्यादा जड़ हो गए शायद !!!
हमारा शैशव हमसे दूर भागा जा रहा है। इसे कैसे रोकें????
स्व से लगाव निष्कपट, वास्तविकता से जुड़े रहना, अध्यात्म से लगाव ये बेहतर विकल्प है पलायन रोकने के। मुख्य है अपनी राह तलाश करना जुड़ाव, प्रेम, समर्पण, अपने कार्य के प्रति रूचि ये सभी अनवरत चलने वाली प्रक्रियाएं है एक चेतना और शक्ति हमारे साथ आजीवन चलती रहती है उसे अनुभव करना और सही संतुलन भी जरुरी है। मेरा अथक प्रयास यही रहता है कि किसी " एक चेहरे " पर मुस्कराहट बिखेर सकूँ ....
सुनो मनहर !!!
बांधना चाहा
तुम्हें "शब्दों " से
बांधना चाहा
तुम्हें " शिव "
पूजा से ~~~~
पर तुम
मौन ही रहे !
~~~~~~~~
तुम्हें पाने की आरजू
दिनों - दिन
रूपांतरित हो रही
एक अपूर्व धुन में
क्षण प्रति
क्षण
जन्म - जन्मांतरों
युगों -युगों
का रिश्ता बनाने
की अनूठी चाह !!!
फिर बौराया !
आँगन में हरसिंगार
हर ( भोले ) को भाये 
हरि ( कृष्णा ) भी मुस्काये ~~~ 
खुशबू बिखराये !
रात को करता शाखाओं
को शोभित
और
सुबह - सवेरे
अवनि को
अंजुली भर फूल
मेरी पूजा की थाली को !
अर्पित करती शंभू को
और होती हर्षित ~~~~
प्रांजल - गंगाजल
सा
तेरा अहसास
जो हर
सवेरे मुझे, 
नित नई
ऊर्जा से भर
देता है !!!
अपने
पावन सलिल
सदृश्य ~~~~~
वंदना दुबे

संगीत विधा और स्वर शक्ति ~~~~ :))))



=====================

संगीत की उत्पत्ति हम सामवेद से मानते हैं। वैदिक ऋचाओं की लयबद्धता इस बात का घोतक है , पौराणिक युग से हम नाद को ब्रम्ह की संज्ञा देते हैं। गन्धर्ववेद में सात स्वर बताएं हैं। इन्ही स्वरों के संगम से राग - रागनियों का स्वरूप निर्मित हुआ। ऐसा कोई राग नही जिसमे सा ( षडज ) न हो।
किंवदंती भी है ! कि सर्वप्रथम ब्रह्मा ने सरस्वती और सरस्वती ने नारद जी को संगीत की शिक्षा दी।
इसी तरह हम शिव को नृत्यदेव ( नटराज ) कहते हैं। गायन, वादन, नृत्य तीनों कलाओं का संगम "संगीत " कहलाता है।

संगीत विचारों, संवेगों और भावनाओं की लिपि है , सुख - दुःख, प्रेम, जय, ओज, भक्ति , प्रकृति श्रृंगार सभी रसों में रचा - बसा है संगीत ! एकांत क्षणों में हम सुमधुर संगीत सुन दीन - दुनिया भुला देते हैं। और तनाव से भी मुक्त भी होते हैं। सब पर संगीत का प्रभाव भिन्न - भिन्न होता है गीत हमें सरलता, सौम्यता और शांति प्रदान करते है। कर्ण प्रिय संगीत उत्प्रेरक का कार्य करता है। संगीत के बिना जीवन नीरस निर्जीव सा। संगीत का मुख्य ध्येय आनंद, शांति प्रदान करना और तनाव से मुक्ति।

हमारे संग - संग धरा भी इसी धारा में बहती है। सरिता का कल -कल, पाँखियों का कलरव, भँवरे की गुंजन, सुबह की लालिमा, सन्धि - प्रकाश की बेला, कानन की हरियाली , पर्वतों की ऊचाईयां , सघन वन की शांति, पत्तों की चरमराहट, कुंज की सुंदरता और सुगंध अपने निराले रूप में संजोती है हमारे संगीत को !!!

सामवेद, गन्धर्व वेद के साथ - साथ आयुर्वेद विधा ने भी संगीत को संजीविनी कहा है। ध्वनि द्वारा ही संगीत की उत्पत्ति हम मानते हैं, मानव शरीर का मष्तिष्क तंत्रिका - तंत्र से बुना हुआ है, और पूरे शरीर से व्यापक रूप से जुड़ा हुआ है सारे राग - अनुराग, आलाप, ताने गीत एवं वाद्य यन्त्र हमारे दिमाग को प्रभावित कर चुंबकीय असर डालते हैं, जिसे हम " संगीत - चिकित्सा " भी कह सकते हैं।

"स्वस्थ शरीर निरोगी काया" मूलमंत्र है जीवन की ~~~~ सात स्वरों का जादू से हृदय रोगी के साथ - साथ मानसिक और मधुमेह के रोगियों में भी सुधार देखा गया है।

राग केदार, भैरवी, शिव रंजनी, ललित ( दोनों मध्यम का सुमधुर संयोजन ) रागों का चमत्कारिक एवं सकारात्मक प्रभाव देखने में आया है। जो रक्त चाप कम करते हैं। दुःख कम करने के लिए भैरव, रामकली , हिंडोल राग प्रभावी हैं। जो हॉर्मोन्स को संचारित करते हैं।

शरीर में पाये जाने वाले मैग्नीशियम, कैल्शियम, ज़िंक, मिनरल्स , लौह तत्व और भी बहुत सारे यौगिक तत्वों को सक्रिय कर उत्तेजित करते हैं जिनसे एंटीऑक्सीडेंट्स निकलते हैं जो हमारे शरीर के रोग को कम करते हैं।

मानव के साथ -साथ प्राणियों और खेतों में भी इसका विशेष प्रभाव देखा गया। गायों में मधुर संगीत से २०% का इजाफा दूध देने में और फसलें लहलहायीं।

शास्त्रीय संगीत में रागों के गायन वादन का समय निर्धारण प्राचीन काल से अपनी कला बिखेरे हुए है।
भोर भये जहाँ भैरव, सारंग, रामकली,दुर्गा , गुणकली ने जादू बिखेरा। तो दोपहर में आशावरी, जौनपुरी, हिंडौल, अल्हैया बिलावल,रागेश्री, पूरिया धनाश्री, पटदीप, मधुवंती, वही!!! गोधूलि की बेला में यमन कल्याण, यमन श्याम, कल्याण का अपना निराला ही आनंद है।
निशाकालीन रागों में मालकौंस, दीपक, ललित, बसंत, भीम पलासी, सोहणी, भूपाली की ताने अपना जादू बिखेरती हैं। भूपाली सौम्यता से भरपूर राग सुनकर मन शांत होता है। और मन स्वस्थ भी होता है।
मेरे प्रिय राग पीलू, कलावती , मालकौंस, ललित, जैजैवन्ती, राघेश्री , बाघेश्री, भैरवी जिन्हे मैंने सितार पर खूब बजाया कॉलेज के दिनों में !!! उनमे से " भैरवी " सर्वकालिक रागों में आता है। संगीत द्वारा चिकित्सा को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। मानसिक रोगियों को ठीक करने में में बेहतर परिणाम सामने आएं हैं। समस्त मित्र जनों से विनय है कि अपनी टिप्पणी अवश्य दें।

--------- © वंदना दुबे
तेरी सारी
खामोशियाँ, 
तन्हाईयाँ 
और 
उदासियाँ 
खरीद लूँ जो
मेरे बस में हो
और भर दूँ तुझे मीठी
मुस्कान से !!!
भीगा - भीगा मौसम
तन्हा - तन्हा सी रातें
मीठी - मीठी यादें.....
---------------
अँधेरे की सरगोशी
पत्तों की सरसराहट
वो हरसिंगार का बिछौना
रातरानी की ख़ुशबू
समी की मोहकता
दिल में फ़िर हलचल ~~~~
----------------------
तेरे अहसास का
अकूत बंधन,
तेरे साथ गुजरे
वो हसीन पल,
तेरे वापस आने की उम्मीदें
तेरी राहों पर
मेरी अपलक
एकटक नज़र ~~~
----------------------
धीरे -धीरे रात का ढलना
सुबह की वापसी
एक नयी सहर की तलाश !!!


तरु भी अपना
प्रतिबिम्ब
पानी में देख
होते होंगे
पुलकित - प्रफ्फुलित - हर्षित
हम सदृश्य !!

Wednesday 20 August 2014

जीवन के नितांत एकांत क्षणों में
तुम प्रेम रंग के
बादल बन कर बरसे
भिगो गये मन की
परिधि को .....
छा गये विस्तृत मन पर .... 
आज धकेलना चाहती हूँ तुम्हे बाहर
तो तुम्हारे निकलने को कोई कोना नही
आवृत ही आवृत ....

वंदना दुबे ...
विश्वास के बदले विश्वास
और मोहब्बत के बदले
मोहब्बत मिले
ये जरुरी तो नही
बहुत खुदकिस्मत हैं वे
जिन्हें ये नसीब 
और जिन्हें ना
वो इसका स्वाद ही क्या जाने
क्या पहचाने
इसकी दीवानगी
और सारी जिन्दगी यूँ ही
तन्हा बिता देंगे
पछ्तायेगें रोयेंगे काश !!!
हम उन पलों को समेट पाते
जो रेत की तरह हाथों से फिसल गए

नीलगिरि के विराट
तरुओं से झांकते
कार्तिक पुरनम के
मोहक मयंक ......
अपनी रजत
धवल सौम्य किरणों से 
परिष्कृत करते
विस्तृत धरा को .........

...........

तुम संग आचमन करती
शीतल शशि किरणों का .....
हाथों में हाथ थामे थामकर
मेरी हथेली क्यू वो .......
कुछ सोचता सा रह गया .........

............

वक़्त कुछ ऐसा रुका
की बस रुका सा रह गया
नैनों में अश्रु भर
नयन से नयन को नमन
कर उसने बस इतना कहा
प्रारब्ध की लक़ीरों से
मैं कहाँ चला गया था ......

..............

की देखते ही देखते
सहसा एक नयी
हरी बेल ऊग आयी
और छेड़ दी हमने
" रागेश्वरी " की ताने
राग - आलाप
मधुरमय चिर रात्रि ......
....वन्दना दुबे ......
 
अपनी यादें बोकर
तुम नित
पुष्पित पल्लवित फलित होने लगे हो
मन के आँगन में
छेड़ गये "यमन " की ताने ....


जब - जब भी मिलते हो
खूब खिलखिलाते हो ,
ज़रा ये भी बताओ हमें
इतनी खुशियाँ कहाँ से
बटोर लाते हो !!!
अरुणोदय मुझे पसंद है
तुम्हारी याद दिलाता है।
एकांत मुझे पसंद है
तुम्हारे स्वप्न दिखाता है। 
ये वसुंधरा !!!
तो स्वर्ग है
इसके हर रूप - रंग में
दिल में ब
से रहते हो
बसे रहोगे युगों - युगों तक ....... 


सर्द सर्द शिशिर
की ठिठुरती रातों में
जब सहसा नींद ख़ुलती है !!!
तो एक तेरा अहसास
नींद उड़ा ले जाता है
और ताप से भर देता है
मुझे गुनगुनी धूप जैसे .....:))))

एक अपूर्व धुन ~~~~
तुम्हें पाने की लालसा
ने ली फ़िर अंगड़ाई ,
रोमांचित कर गयी मुझे ………

तुम संग ,
तरंगिणी तट पर
सांध्यप्रकाश की
मनोहारी बेला में
वक़्त बिताने का मन ………


तुम्हारी और मेरी
उलझी हथेलियाँ
उनकी ऊष्मा ~~~~~~
और अंकुरित होता प्रेम ………

तुम्हारे स्पर्श का
वह सुकोमल एहसास
हरसिंगार के फूलों सा
जनम - जनम तक ..........

कि मेरी तंद्रिल आँखों से
गरम - गरम आंसूं
फ़िर चूने लगे।

~~~~ वन्दना दुबे ~~~~
 —
हे दिवाकर देव !!!

शिशिर निशा काल का अंत
गहन गिरि कानन
और उपवन में
श्यामल गगन को 
अपने तम और प्रकाश पुंजों से
परिष्कृत कर दो
हे दिवाकर देव !!!


---------
प्राची के महाद्वार से
सवेरे - सवेरे
सूर्य का रथ तेज़ी से निकले
पवन सहलाये
कपोल "प्रियतम " के
स्वप्न स्नेह के टूटे
तुम्हारी किरणों से
सुन्दर सुकुमार देह
खोले नयन
तुम्हारी आभा
से सुदूर सागर किनारे
हे दिवाकर देव !!!

-----------
समीर तेरे प्रतिकर्षण से
मैं तुम्हें छू लूंगी
उनकी मध्धम - मध्धम
मलयानिल महक
का अभिसार कर लूँगी
" प्रियतम"
को आत्मसात कर लूँगी !
आरम्भ से ही
गोचर होकर रहे अगोचर ........


=== वंदना दुबे =

जब क्षितिज की सिन्दूरी लालिमा
जलनिधि को अलंकृत करती
चमकती रश्मियाँ तन - मन भिगोती
श्वेत पाँखिओं की कतारें
आसमां सँजोती ........

=======

पूनम की साँझ में
ज्वार - भाटे सी
तुम्हारी यादें
सिन्धु की तीव्र लहरों जैसी
मेरे मुख मंडल को
क्षण - क्षण छेड़ जाती
रोम - रोम सहर जाता है.........

======

सहेजना चाहती हूँ
इन पलों को मैं हाथों में
तो हथेली में आ जाते हैं
गोमती चक्र , शंख , सीप ,
अनेक समुद्री रत्न..........

=======

यादों के झरोखों से
गुजरा वक़्त फ़िर याद आ जाता है ,
नैनों के कोरो को
नम कर जाता है
अश्रु लड़ी निकल जाती है
इक बीती हुयी शाम
चलचित्र सी.........

वंदना दुबे
 — 
मन झूम - झपाक - झमझम
झंकृत हो उठता है
" झिंझोटी " की ताने
गुनगुनाता है ......
जब तुम मुझे "सुंदर " कहते हो
अपने पे ग़ुमान हो जाता है

सर्वांग अलंकृत हो जाते हैं ।


बिहान भये नित
निर्मल बयार बहती
उषा के आँचल फैलाते ही
झरोखों से,,,,,,

उदय की सुनहरी रश्मियाँ
मेरे मुख मण्डल को चूमती थी
मुझे सहलाती थी
जगाती थी ,,,,,,,,

पर इन दिनों
शीतल - शीत ऋतु में
मोटे कोहरे की सफ़ेद चादरों ने
मेरे अरुण को जाने कहाँ छुपा लिया है
अरुणिमा खो गयी कहीं
ना जाने कब लौटेगी ,,,,,,,

,,,,, वन्दना दुबे ,,,,,,
आशा विश्वास हमारे तुम
जीवन प्रभात हमारे तुम
सुनहरी सांझ हमारे तुम
मीठे स्वप्न भी तुम संग .




जब सुबह सुहानी होती है 
परिन्दों की कतारे
 अम्बर संजोती है ,
सिन्दूरी किरणें
तरंगिणी को अलंकृत करती है ,,,,,,

-----

तन है गीला
मन है सूखा 
मैं कंकाल सा तरु
 सलिलमय हूँ ,,,,,,

------
फ़िर भी
अंतरमन तक प्यासा 
छिन्न - भिन्न
अंग - अंग
 अस्तित्व विहीन निर्जीव सदृश्य ,,,,,,

वंदना दुबे 

मेरे प्रिय रागों के
आरोह
अवरोह समतुल्य
क्षण - क्षण
समाहित हो रहे
मेरे जीवन में 
तुम
शनै : शनै 



सिंदूरी सूरज
सुबह - सुबह
तुम सदृश्य
अपूर्व सौंदर्य भरपूर 
वही नूर
वही गुरुर
हमसे कितनी दूर
जैसे तुम
सुदूर~~~~

यादें ....

तेरी याद मेरे दिल में
मेरे सासों जैसी
पल - पल साथ ------------
तेरी बातें
सागर की लहरों जैसी
छूकर मेरे पैरों को
रोमांचित कर
लौट - लौट जाती है ...

यादें हमारी जेहन ख़जाने की तरह होती हैं.... यादों की दस्तक दिलों - दिमाग से जुदा नही होती ताउम्र .....हम जिन्दगी यादों में तलाशते रह जाते हैं ....इन्हें समेटने और सहेजने का कभी प्रयास नही करना पड़ता ....
दिल के किसी कोने में घर किये होती हैं .....बाँवरा मन ही तय करता है किन्हें संजोना है और किन्हें भुलाना ......

यादों के भी दो रूप होते हैं
१ . व्यक्तिगत
२. सामूहिक

सामूहिक यादें हमें समाज , सभ्यता ,और वंश से जोड़े रहती हैं वहीं व्यक्तिगत मन को पुलकित ,प्रफुल्लित ,उत्साहित और जीवन्तता प्रदान करती हैं सुंदर समृतियों को मन जीवन पर्यन्त संजोये रखता है हर घटना , रचना , तस्वीरें अपना डेरा जमाये रहती हैं और मीठी ,खट्टी अनुभूति हमें अनुभव कराती रहती है .....बेहतरीन लम्हों ,तस्वीरों ,जगहों पर हम कभी मुस्कुराते है या अश्रु लुड़काते हैं ...यादों का सिलसिला अंतहीन है .....

{.... वंदना दुबे ......}
 
कभी कभी
चलते - चलते
यूहीं राह में....

जब भी निगाह पड़ी
गुलों पर छिटकी ओस की बूंदों पर 
या
चमकती सिंदूरी किरणे
सागर की लहरों पर ........
या
दूर एकांत सी सुनसान राहों पर
बस याद तेरी ही आयी
और तेरा ही जिक्र आया ~~


यादें ....

तेरी याद मेरे दिल में
मेरे सासों जैसी
पल - पल साथ ------------
तेरी बातें
सागर की लहरों जैसी
छूकर मेरे पैरों को
रोमांचित कर
लौट - लौट जाती है ...

फूटते हैं
अंतर्मन से
नित
नये - नये
प्रेम के पर्याय
उतारती
उन्हें कोरे पन्नों में
जो
तुम पर अप्रभावी आज भी........

~~~~~
और तुम उतने ही
पाषाणवत रहे
" मनहर "


चहके पंक्षी
महकी वसुधा
किरणों ने बाँह पसारी
नव - पल्ल्वित - पुलकित - हर्षित
चहुँ ओर विपुल आलोक छाया
लो फिर एक नयी श्रृंगारित भोर आयी........:)))

जब भी तनहा मैं होती
दूर क्षितिज को ताकती
कल्पनाओं में जीती
तुमसे गुफ़तगू करती
तो कभी आखें छलछला आती
और वही मौन
पसरा चहुँओर 


एक बार चले आओ~~
जब तुम आओगे
रुत हो जायेगी बासन्ती
फूल पत्ते बन पराग
बिछ जायेंगे पथ में
एक बार चले आओ ~~~~

*****
खिल -खिल जावेंगे
भीगे - भीगे नयन
घुल जाएगा संचित विरह - विराग
नीर लेंगे तुम्हरे
पग पँखार
दूंगी तुम पर सर्वस्व वार
हो जाओगे फिर तुम निहाल
एक बार चले आओ ~~~~

*****

कोमल सुमन हरश्रृंगार क़ी परतें
पग -पग में बिखराऊँगी
नयन नीर के लवण सलिल से
कोमल कर धुलवाऊंगी
संग - संग गायेंगे
" कलावती " का राग आलाप
मन होगा अपना तार - तार
एक बार चले आओ ~~~
 

हे आर्य ..!!!
जब कभी आप
नींद में मुझे
बिना मिले ही
बिना देखे ही
छू जाते हो.........

कपकपा जाती हूँ मैं
अपने हीं चादर में उलझकर .........
ना जाने कितने
सतरंगी सपने
मेरे नयनों में
समा जाते हैं........

मुझे भी पता है
उन सपनों की
कोई मंजिल नहीं है...........

ये रिश्ते ,
पानी में चलने जैसे
पवन में उड़ने जैसे
धरती अम्बर क्षितिज से
दृष्टि गोचर अंतहीन
सागर की लहरों का नाद जैसे

.......

नींद खुलते ही
तुम्हारी छबि विलुप्त
हो जाती है
नयन डबडबा जाते हैं.......

काश !!!
ऐसा हो पाता और
हम दोनों के मध्य होती
मौन अभिव्यक्ति ……

-- © --
वंदना दुबे
 —
जिये कुछ इस तरह
की कल भी जीवित रहना है ,
करो कुछ इस तरह
की कल ही मर जाना है। 



यादों का सिलसिला ~~
बार - बार चला जाता है
क्यूँ ???
बीते कल की ओर
और
बेसाख्ता !!!
इन नयनन में
नमी ,
कुछ ख़ुशी की
कुछ गम की 
कुछ आशायें !!!
आने वाले कल की 



कुछ रिश्ते बनायें रब ने
कुछ रिश्तें बनायें लोगों ने
वे रिश्ते मगर ख़ास
जो रिश्ता निभाये रिश्तों के बिना.......
तुम बिन जीवन बीतेगा नही
हौले - हौले से कह गयी अब
मौसम की पहली फ़ुहार !!!







अपने वारुणी नयनों से
निहारूंगी तुम्हें
बस
मेरे घर
दबे पाओं चुपचाप चले आओ !!!
ना मन में आओ ,
न स्पंदन बढाओ
ना साँसों से महकाओ
बस और बस ,
चुपचाप चले आओ !!!

============== वंदना दुबे


ऊंचाई वो ,
जहाँ से अपने भी नज़र आयें
यादें वो ,
वो तनहायी में साथ निभाएं
अच्छायी वो ,
जो बिगड़े संबंधों को बनाये
और सालों - साल निभाये !!!
ना पूछ मुझसे कि
मेरी मंजिल कहाँ तक है
अभी तो सफ़र का इरादा किया है ,
ना हारेंगे हौसला
उम्र भर
ये मैंने किसी से नही
अपने से कहा है !!!
आ गया घनकाल ~~~~
घनघोर
घन - घन करते
घिरे - घनरस
घनन - घनन
टप - टप 
टपाटप
श्रृंगारित हुए पात - पात
भीगा मन मेरा भी ~~~

Saturday 2 August 2014


इंद्रधनुषी भोर
ताज़गी भरा सवेरा
तेरी यादों ने
लो फिर
डाला है डेरा !!!
अरुण आभा की 
मुस्कराहट
चहुंओर छायी
लो फिर एक
पुलकित प्रफ्फुलित उल्लासित
बिहान आई !!!
 — 
Photo: इंद्रधनुषी भोर 
ताज़गी भरा सवेरा 
तेरी यादों ने
 लो फिर 
डाला है डेरा !!!
अरुण आभा की 
मुस्कराहट 
चहुंओर छायी 
लो फिर एक 
पुलकित प्रफ्फुलित उल्लासित
बिहान आई !!!

" प्रेम " मन को अलंकृत करता है। कनक सी चमक, अलौकिक दिव्यता और मन का आवरण है , प्रेम में रहना या जीना एक शाश्वत अतुल्य आनंद का अनुभव है, यह व्यक्तित्व की शुद्धतम स्थिति, जिसमें संवेदनायें - भावनायें एक दूसरे से जुड़ी रहती है, भावों को समझनेकी परख होनी चाहिये। प्रेम मौन भी हो तो दॄष्टि का सुख और स्पर्श का सुख का अपना अनूठा आनंद है जिसमें दोनों ही आनंदित होते हैं ,~~~~~~~"प्रेम " ईश्वर का दिया उपहार है चिन्तन हैं, मनुहार है , प्रेम को परिभाषित करना या गढ़ना बहुत कठिन है , स्पर्श का सुख ,दृष्टि का सुख , मिलन का सुख और वियोग का सुख सारे रसों से सराबोर है प्रेम। सावन की पहली बूंदों जैसा ~~~~~

प्रेम शब्द जब आचरण से मंडित होता है तो वह जप और मंत्रों की शक्ति प्राप्त कर लेता है ..हमारे विचार ही हमारे शब्द बनते है ... शब्दों से भाव पनपता है भाव ही कर्म और प्रेम की रचना करते हैं ह्रदय के निर्मल मन से जो सुर निकलेंगे वे अतभुत गगनगामी तुल्य होंगे !!!

मुझे तो प्रेम प्रकृति के हर रंग में दिखता है " तुम्हारे प्रेम को पढ़ने की सामर्थ्य मुझमें है , बस तुम मूक रहो प्रशांत सागर से, मेरी शब्द लहरियाँ तरंगों सी, पूनम - अमावस के ज्वार - भाटे सी, क्षण - क्षण तुमसे टकराकर, आंदोलित कर तुम्हें गतिमान करते रहेंगी और तुममें प्रेम को संचारित करते रहेंगी। " ......:))))

===== © वंदना दुबे
 — 
Photo: " प्रेम " मन को अलंकृत करता है। कनक सी चमक, अलौकिक दिव्यता और मन का आवरण है , प्रेम में रहना या जीना एक शाश्वत अतुल्य आनंद का अनुभव है, यह व्यक्तित्व की शुद्धतम स्थिति, जिसमें संवेदनायें - भावनायें एक दूसरे से जुड़ी रहती है, भावों को समझने की परख होनी चाहिये। प्रेम मौन भी हो तो दॄष्टि का सुख और स्पर्श का सुख का अपना अनूठा आनंद है जिसमें दोनों ही आनंदित होते हैं ,~~~~~~~"प्रेम " ईश्वर का दिया उपहार है चिन्तन हैं, मनुहार है , प्रेम को परिभाषित करना या गढ़ना बहुत कठिन है , स्पर्श का सुख ,दृष्टि का सुख , मिलन का सुख और वियोग का सुख सारे रसों से सराबोर है प्रेम। सावन की पहली बूंदों जैसा  ~~~~~

प्रेम शब्द जब आचरण से मंडित होता है तो वह जप और मंत्रों की शक्ति प्राप्त कर लेता है ..हमारे विचार ही हमारे शब्द बनते है ... शब्दों से भाव पनपता है भाव ही कर्म और प्रेम की रचना करते हैं ह्रदय के निर्मल मन से जो सुर निकलेंगे वे अतभुत गगनगामी तुल्य होंगे !!!

 मुझे तो प्रेम प्रकृति के हर रंग में दिखता  है " तुम्हारे प्रेम  को पढ़ने की सामर्थ्य मुझमें है , बस तुम मूक रहो प्रशांत सागर से, मेरी शब्द लहरियाँ तरंगों सी, पूनम - अमावस  के ज्वार - भाटे सी, क्षण - क्षण तुमसे टकराकर, आंदोलित कर तुम्हें गतिमान करते रहेंगी  और तुममें प्रेम को संचारित  करते रहेंगी। "  ......:)))) 

===== © वंदना दुबे

यादों का सिलसिला ~~
बार - बार चला जाता है
क्यूँ ???
बीते कल की ओर
और
बेसाख्ता !!!
इन नयनन में
नमी ,
कुछ ख़ुशी की
कुछ गम की
कुछ आशायें !!!
आने वाले कल की

Continuation of memories ~ ~
Again and again goes
Why???
Yesterday the
And !!!
In these eyes
Humidity,
Some pleasure
Some of sorrow
Some expectations!!
Of tomorrow ~
Vandana ~
 
Photo: यादों का सिलसिला ~~
बार - बार चला जाता है
क्यूँ ???
बीते कल की ओर
और
बेसाख्ता !!!
इन नयनन में 
नमी , 
कुछ ख़ुशी की 
कुछ गम की 
कुछ आशायें !!!
आने वाले कल की 

Continuation of memories ~ ~ 
Again and again goes 
Why??? 
Yesterday the 
And !!! 
In these eyes 
Humidity, 
Some pleasure 
Some of sorrow 
Some expectations!! 
Of tomorrow ~ 
Vandana ~