Wednesday 20 August 2014


फूटते हैं
अंतर्मन से
नित
नये - नये
प्रेम के पर्याय
उतारती
उन्हें कोरे पन्नों में
जो
तुम पर अप्रभावी आज भी........

~~~~~
और तुम उतने ही
पाषाणवत रहे
" मनहर "


चहके पंक्षी
महकी वसुधा
किरणों ने बाँह पसारी
नव - पल्ल्वित - पुलकित - हर्षित
चहुँ ओर विपुल आलोक छाया
लो फिर एक नयी श्रृंगारित भोर आयी........:)))

जब भी तनहा मैं होती
दूर क्षितिज को ताकती
कल्पनाओं में जीती
तुमसे गुफ़तगू करती
तो कभी आखें छलछला आती
और वही मौन
पसरा चहुँओर 

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