Monday 6 October 2014

पहाड़ों का नैसर्गिक सौंदर्य और जन का पलायन रोज़गार के लिए ~~~
" ऊँची - ऊँचीं पर्वतमाला
खिलखिलाती सरिता
अतभुत - अप्रतिम
अनंत सौन्दर्य
पलायन फिर भी !!!
रोक न पाया
जन - जन को "
"उत्तरं यत समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद भारतं नाम, भारती तस्य संस्कृति ।।
पुराणों में शिखरों को देवतुल्य, देवात्मा माना गया है प्रचुर सम्पदा से परिपूर्ण, अतुल्य गुणों का खजाना,आदिदैविक शक्तियां, अतभुत नयनाभिराम दृष्य , शुद्ध जलवायु , विहंगम दृश्य, इठलाती तरंगिणी,उँचे - ऊँचे देवदार,सॉल, मनमोहक बनफूल जहाँ तक नयन जाएँ समूची वसुधा सुसज्जित, पुलकित, प्रफ्फुलित !!!
इतने अप्रतिम सौंदर्य के बाद भी रोज़गार की खोज में लोंगों का पलायन महानगरों की ओर !!! और सच भी है ये नज़ारे हमारी भूख नही मिटा सकते ?
उच्च शिक्षा का आभाव, काम की कमी,सुविधाओं का आभाव, प्राकृतिक आपदायें झिंझोड़ रही हैं जन - जन को , इस तरह वह दिन दूर नही जब निर्जन हो जाएंगे हमारे पहाड़। रोज़गार की कमी, महानगरों की चकाचौंध, भौतिकता, मॉल का आकर्षण युवा वर्ग को खीच रहा है लगातार।
हिमालय की तराई से ~~ कन्या कुमारी तक और कच्छ से कछार तक जो पर्वत- मालायें भारत वर्ष में है वे अपनी मिटटी और जलवायु के अनुरूप भरपूर प्राकृतिक सम्पदाएँ ( फल, फूल, शहद, केशर, कीमती लकड़ी, बहुमूल्य आयुर्वेदिक औषिधियाँ, खनिज, चाय - काफी ) समय -समय पर देती रहती हैं। जिनका हम सब भरपूर दोहन करते हैं।
रामराज्य में राम ने, गिरि - कानन गुफाओं में जाकर आदिवासियोँ ( केवट, शबरी, निषादराज ) को गले लगाया तदुपरांत ही राजाराम के साथ - साथ दीन - बंधु भी कहलाये और त्रेता युग की जड़ी - बूटियाँ संजीवनी कहलायी। प्राकृतिक उपहारों की अवहेलना वर्तमान में तेज़ी से हो रही है और पाश्चात्य संस्कृति रौब जमाकर छा रही दिनोदिन हम सब पर।
सरकार, NGO , देश के प्रतिष्ठित औद्योगिक घरानों को और समाज सेवी संस्थाओं को इस ओर ठोस कदम उठा कर, छोटे - छोटे कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिये, उच्च शिक्षा संस्थान खोलने चाहिये, आयुर्वेदिक औषधियां अनुसन्धान हेतु वांछित सहयोग निधि प्रदान करना चाहिये, तभी हम इस जन पलायन को रोक पायेंगे जो पहाड़ी लोग अपनी सत्यता, सहजता, सरलता , सुंदरता , निश्छलता, निर्मलता के लिये पहचाने जाते हैँ। ~~~~~
वंदना दुबे

No comments:

Post a Comment