Monday 6 October 2014

हरी बेल सी ऊग आई....
फ़लक पर यूँ
उमड़ आये
बादल बन के 
क्या ढूढ़ते हो "तुम "
हाथों की इन लकीरों में
घंटों निहारते हो
इन हथेलियों को .....
पूछा मैंने
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समय के अवसान में
इस एकांत शाम में
क्लांत मन से
अश्रु भर कर नयन में
डबडबाये -----
तुमने बस इतना कहा !!!
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इन रेखाओं में
मेरा नसीब नहीं
सुन ढुलक गया
मेरा भी एक आसूँ
भिगो गया कोर नैनों की .... :((((
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देखते ही देखते
एक हरी बेल सी ऊग आई
इन हाथों में
बरबस ही
मैं मुस्कायी तुम्हें
दिखाया उस अनोखी बेल को ......!!!

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