Wednesday 20 August 2014

जीवन के नितांत एकांत क्षणों में
तुम प्रेम रंग के
बादल बन कर बरसे
भिगो गये मन की
परिधि को .....
छा गये विस्तृत मन पर .... 
आज धकेलना चाहती हूँ तुम्हे बाहर
तो तुम्हारे निकलने को कोई कोना नही
आवृत ही आवृत ....

वंदना दुबे ...
विश्वास के बदले विश्वास
और मोहब्बत के बदले
मोहब्बत मिले
ये जरुरी तो नही
बहुत खुदकिस्मत हैं वे
जिन्हें ये नसीब 
और जिन्हें ना
वो इसका स्वाद ही क्या जाने
क्या पहचाने
इसकी दीवानगी
और सारी जिन्दगी यूँ ही
तन्हा बिता देंगे
पछ्तायेगें रोयेंगे काश !!!
हम उन पलों को समेट पाते
जो रेत की तरह हाथों से फिसल गए

नीलगिरि के विराट
तरुओं से झांकते
कार्तिक पुरनम के
मोहक मयंक ......
अपनी रजत
धवल सौम्य किरणों से 
परिष्कृत करते
विस्तृत धरा को .........

...........

तुम संग आचमन करती
शीतल शशि किरणों का .....
हाथों में हाथ थामे थामकर
मेरी हथेली क्यू वो .......
कुछ सोचता सा रह गया .........

............

वक़्त कुछ ऐसा रुका
की बस रुका सा रह गया
नैनों में अश्रु भर
नयन से नयन को नमन
कर उसने बस इतना कहा
प्रारब्ध की लक़ीरों से
मैं कहाँ चला गया था ......

..............

की देखते ही देखते
सहसा एक नयी
हरी बेल ऊग आयी
और छेड़ दी हमने
" रागेश्वरी " की ताने
राग - आलाप
मधुरमय चिर रात्रि ......
....वन्दना दुबे ......
 
अपनी यादें बोकर
तुम नित
पुष्पित पल्लवित फलित होने लगे हो
मन के आँगन में
छेड़ गये "यमन " की ताने ....


जब - जब भी मिलते हो
खूब खिलखिलाते हो ,
ज़रा ये भी बताओ हमें
इतनी खुशियाँ कहाँ से
बटोर लाते हो !!!
अरुणोदय मुझे पसंद है
तुम्हारी याद दिलाता है।
एकांत मुझे पसंद है
तुम्हारे स्वप्न दिखाता है। 
ये वसुंधरा !!!
तो स्वर्ग है
इसके हर रूप - रंग में
दिल में ब
से रहते हो
बसे रहोगे युगों - युगों तक ....... 


सर्द सर्द शिशिर
की ठिठुरती रातों में
जब सहसा नींद ख़ुलती है !!!
तो एक तेरा अहसास
नींद उड़ा ले जाता है
और ताप से भर देता है
मुझे गुनगुनी धूप जैसे .....:))))

एक अपूर्व धुन ~~~~
तुम्हें पाने की लालसा
ने ली फ़िर अंगड़ाई ,
रोमांचित कर गयी मुझे ………

तुम संग ,
तरंगिणी तट पर
सांध्यप्रकाश की
मनोहारी बेला में
वक़्त बिताने का मन ………


तुम्हारी और मेरी
उलझी हथेलियाँ
उनकी ऊष्मा ~~~~~~
और अंकुरित होता प्रेम ………

तुम्हारे स्पर्श का
वह सुकोमल एहसास
हरसिंगार के फूलों सा
जनम - जनम तक ..........

कि मेरी तंद्रिल आँखों से
गरम - गरम आंसूं
फ़िर चूने लगे।

~~~~ वन्दना दुबे ~~~~
 —
हे दिवाकर देव !!!

शिशिर निशा काल का अंत
गहन गिरि कानन
और उपवन में
श्यामल गगन को 
अपने तम और प्रकाश पुंजों से
परिष्कृत कर दो
हे दिवाकर देव !!!


---------
प्राची के महाद्वार से
सवेरे - सवेरे
सूर्य का रथ तेज़ी से निकले
पवन सहलाये
कपोल "प्रियतम " के
स्वप्न स्नेह के टूटे
तुम्हारी किरणों से
सुन्दर सुकुमार देह
खोले नयन
तुम्हारी आभा
से सुदूर सागर किनारे
हे दिवाकर देव !!!

-----------
समीर तेरे प्रतिकर्षण से
मैं तुम्हें छू लूंगी
उनकी मध्धम - मध्धम
मलयानिल महक
का अभिसार कर लूँगी
" प्रियतम"
को आत्मसात कर लूँगी !
आरम्भ से ही
गोचर होकर रहे अगोचर ........


=== वंदना दुबे =

जब क्षितिज की सिन्दूरी लालिमा
जलनिधि को अलंकृत करती
चमकती रश्मियाँ तन - मन भिगोती
श्वेत पाँखिओं की कतारें
आसमां सँजोती ........

=======

पूनम की साँझ में
ज्वार - भाटे सी
तुम्हारी यादें
सिन्धु की तीव्र लहरों जैसी
मेरे मुख मंडल को
क्षण - क्षण छेड़ जाती
रोम - रोम सहर जाता है.........

======

सहेजना चाहती हूँ
इन पलों को मैं हाथों में
तो हथेली में आ जाते हैं
गोमती चक्र , शंख , सीप ,
अनेक समुद्री रत्न..........

=======

यादों के झरोखों से
गुजरा वक़्त फ़िर याद आ जाता है ,
नैनों के कोरो को
नम कर जाता है
अश्रु लड़ी निकल जाती है
इक बीती हुयी शाम
चलचित्र सी.........

वंदना दुबे
 — 
मन झूम - झपाक - झमझम
झंकृत हो उठता है
" झिंझोटी " की ताने
गुनगुनाता है ......
जब तुम मुझे "सुंदर " कहते हो
अपने पे ग़ुमान हो जाता है

सर्वांग अलंकृत हो जाते हैं ।


बिहान भये नित
निर्मल बयार बहती
उषा के आँचल फैलाते ही
झरोखों से,,,,,,

उदय की सुनहरी रश्मियाँ
मेरे मुख मण्डल को चूमती थी
मुझे सहलाती थी
जगाती थी ,,,,,,,,

पर इन दिनों
शीतल - शीत ऋतु में
मोटे कोहरे की सफ़ेद चादरों ने
मेरे अरुण को जाने कहाँ छुपा लिया है
अरुणिमा खो गयी कहीं
ना जाने कब लौटेगी ,,,,,,,

,,,,, वन्दना दुबे ,,,,,,
आशा विश्वास हमारे तुम
जीवन प्रभात हमारे तुम
सुनहरी सांझ हमारे तुम
मीठे स्वप्न भी तुम संग .




जब सुबह सुहानी होती है 
परिन्दों की कतारे
 अम्बर संजोती है ,
सिन्दूरी किरणें
तरंगिणी को अलंकृत करती है ,,,,,,

-----

तन है गीला
मन है सूखा 
मैं कंकाल सा तरु
 सलिलमय हूँ ,,,,,,

------
फ़िर भी
अंतरमन तक प्यासा 
छिन्न - भिन्न
अंग - अंग
 अस्तित्व विहीन निर्जीव सदृश्य ,,,,,,

वंदना दुबे 

मेरे प्रिय रागों के
आरोह
अवरोह समतुल्य
क्षण - क्षण
समाहित हो रहे
मेरे जीवन में 
तुम
शनै : शनै 



सिंदूरी सूरज
सुबह - सुबह
तुम सदृश्य
अपूर्व सौंदर्य भरपूर 
वही नूर
वही गुरुर
हमसे कितनी दूर
जैसे तुम
सुदूर~~~~

यादें ....

तेरी याद मेरे दिल में
मेरे सासों जैसी
पल - पल साथ ------------
तेरी बातें
सागर की लहरों जैसी
छूकर मेरे पैरों को
रोमांचित कर
लौट - लौट जाती है ...

यादें हमारी जेहन ख़जाने की तरह होती हैं.... यादों की दस्तक दिलों - दिमाग से जुदा नही होती ताउम्र .....हम जिन्दगी यादों में तलाशते रह जाते हैं ....इन्हें समेटने और सहेजने का कभी प्रयास नही करना पड़ता ....
दिल के किसी कोने में घर किये होती हैं .....बाँवरा मन ही तय करता है किन्हें संजोना है और किन्हें भुलाना ......

यादों के भी दो रूप होते हैं
१ . व्यक्तिगत
२. सामूहिक

सामूहिक यादें हमें समाज , सभ्यता ,और वंश से जोड़े रहती हैं वहीं व्यक्तिगत मन को पुलकित ,प्रफुल्लित ,उत्साहित और जीवन्तता प्रदान करती हैं सुंदर समृतियों को मन जीवन पर्यन्त संजोये रखता है हर घटना , रचना , तस्वीरें अपना डेरा जमाये रहती हैं और मीठी ,खट्टी अनुभूति हमें अनुभव कराती रहती है .....बेहतरीन लम्हों ,तस्वीरों ,जगहों पर हम कभी मुस्कुराते है या अश्रु लुड़काते हैं ...यादों का सिलसिला अंतहीन है .....

{.... वंदना दुबे ......}
 
कभी कभी
चलते - चलते
यूहीं राह में....

जब भी निगाह पड़ी
गुलों पर छिटकी ओस की बूंदों पर 
या
चमकती सिंदूरी किरणे
सागर की लहरों पर ........
या
दूर एकांत सी सुनसान राहों पर
बस याद तेरी ही आयी
और तेरा ही जिक्र आया ~~


यादें ....

तेरी याद मेरे दिल में
मेरे सासों जैसी
पल - पल साथ ------------
तेरी बातें
सागर की लहरों जैसी
छूकर मेरे पैरों को
रोमांचित कर
लौट - लौट जाती है ...

फूटते हैं
अंतर्मन से
नित
नये - नये
प्रेम के पर्याय
उतारती
उन्हें कोरे पन्नों में
जो
तुम पर अप्रभावी आज भी........

~~~~~
और तुम उतने ही
पाषाणवत रहे
" मनहर "


चहके पंक्षी
महकी वसुधा
किरणों ने बाँह पसारी
नव - पल्ल्वित - पुलकित - हर्षित
चहुँ ओर विपुल आलोक छाया
लो फिर एक नयी श्रृंगारित भोर आयी........:)))

जब भी तनहा मैं होती
दूर क्षितिज को ताकती
कल्पनाओं में जीती
तुमसे गुफ़तगू करती
तो कभी आखें छलछला आती
और वही मौन
पसरा चहुँओर 


एक बार चले आओ~~
जब तुम आओगे
रुत हो जायेगी बासन्ती
फूल पत्ते बन पराग
बिछ जायेंगे पथ में
एक बार चले आओ ~~~~

*****
खिल -खिल जावेंगे
भीगे - भीगे नयन
घुल जाएगा संचित विरह - विराग
नीर लेंगे तुम्हरे
पग पँखार
दूंगी तुम पर सर्वस्व वार
हो जाओगे फिर तुम निहाल
एक बार चले आओ ~~~~

*****

कोमल सुमन हरश्रृंगार क़ी परतें
पग -पग में बिखराऊँगी
नयन नीर के लवण सलिल से
कोमल कर धुलवाऊंगी
संग - संग गायेंगे
" कलावती " का राग आलाप
मन होगा अपना तार - तार
एक बार चले आओ ~~~
 

हे आर्य ..!!!
जब कभी आप
नींद में मुझे
बिना मिले ही
बिना देखे ही
छू जाते हो.........

कपकपा जाती हूँ मैं
अपने हीं चादर में उलझकर .........
ना जाने कितने
सतरंगी सपने
मेरे नयनों में
समा जाते हैं........

मुझे भी पता है
उन सपनों की
कोई मंजिल नहीं है...........

ये रिश्ते ,
पानी में चलने जैसे
पवन में उड़ने जैसे
धरती अम्बर क्षितिज से
दृष्टि गोचर अंतहीन
सागर की लहरों का नाद जैसे

.......

नींद खुलते ही
तुम्हारी छबि विलुप्त
हो जाती है
नयन डबडबा जाते हैं.......

काश !!!
ऐसा हो पाता और
हम दोनों के मध्य होती
मौन अभिव्यक्ति ……

-- © --
वंदना दुबे
 —
जिये कुछ इस तरह
की कल भी जीवित रहना है ,
करो कुछ इस तरह
की कल ही मर जाना है। 



यादों का सिलसिला ~~
बार - बार चला जाता है
क्यूँ ???
बीते कल की ओर
और
बेसाख्ता !!!
इन नयनन में
नमी ,
कुछ ख़ुशी की
कुछ गम की 
कुछ आशायें !!!
आने वाले कल की 



कुछ रिश्ते बनायें रब ने
कुछ रिश्तें बनायें लोगों ने
वे रिश्ते मगर ख़ास
जो रिश्ता निभाये रिश्तों के बिना.......
तुम बिन जीवन बीतेगा नही
हौले - हौले से कह गयी अब
मौसम की पहली फ़ुहार !!!







अपने वारुणी नयनों से
निहारूंगी तुम्हें
बस
मेरे घर
दबे पाओं चुपचाप चले आओ !!!
ना मन में आओ ,
न स्पंदन बढाओ
ना साँसों से महकाओ
बस और बस ,
चुपचाप चले आओ !!!

============== वंदना दुबे


ऊंचाई वो ,
जहाँ से अपने भी नज़र आयें
यादें वो ,
वो तनहायी में साथ निभाएं
अच्छायी वो ,
जो बिगड़े संबंधों को बनाये
और सालों - साल निभाये !!!
ना पूछ मुझसे कि
मेरी मंजिल कहाँ तक है
अभी तो सफ़र का इरादा किया है ,
ना हारेंगे हौसला
उम्र भर
ये मैंने किसी से नही
अपने से कहा है !!!
आ गया घनकाल ~~~~
घनघोर
घन - घन करते
घिरे - घनरस
घनन - घनन
टप - टप 
टपाटप
श्रृंगारित हुए पात - पात
भीगा मन मेरा भी ~~~

Saturday 2 August 2014


इंद्रधनुषी भोर
ताज़गी भरा सवेरा
तेरी यादों ने
लो फिर
डाला है डेरा !!!
अरुण आभा की 
मुस्कराहट
चहुंओर छायी
लो फिर एक
पुलकित प्रफ्फुलित उल्लासित
बिहान आई !!!
 — 
Photo: इंद्रधनुषी भोर 
ताज़गी भरा सवेरा 
तेरी यादों ने
 लो फिर 
डाला है डेरा !!!
अरुण आभा की 
मुस्कराहट 
चहुंओर छायी 
लो फिर एक 
पुलकित प्रफ्फुलित उल्लासित
बिहान आई !!!

" प्रेम " मन को अलंकृत करता है। कनक सी चमक, अलौकिक दिव्यता और मन का आवरण है , प्रेम में रहना या जीना एक शाश्वत अतुल्य आनंद का अनुभव है, यह व्यक्तित्व की शुद्धतम स्थिति, जिसमें संवेदनायें - भावनायें एक दूसरे से जुड़ी रहती है, भावों को समझनेकी परख होनी चाहिये। प्रेम मौन भी हो तो दॄष्टि का सुख और स्पर्श का सुख का अपना अनूठा आनंद है जिसमें दोनों ही आनंदित होते हैं ,~~~~~~~"प्रेम " ईश्वर का दिया उपहार है चिन्तन हैं, मनुहार है , प्रेम को परिभाषित करना या गढ़ना बहुत कठिन है , स्पर्श का सुख ,दृष्टि का सुख , मिलन का सुख और वियोग का सुख सारे रसों से सराबोर है प्रेम। सावन की पहली बूंदों जैसा ~~~~~

प्रेम शब्द जब आचरण से मंडित होता है तो वह जप और मंत्रों की शक्ति प्राप्त कर लेता है ..हमारे विचार ही हमारे शब्द बनते है ... शब्दों से भाव पनपता है भाव ही कर्म और प्रेम की रचना करते हैं ह्रदय के निर्मल मन से जो सुर निकलेंगे वे अतभुत गगनगामी तुल्य होंगे !!!

मुझे तो प्रेम प्रकृति के हर रंग में दिखता है " तुम्हारे प्रेम को पढ़ने की सामर्थ्य मुझमें है , बस तुम मूक रहो प्रशांत सागर से, मेरी शब्द लहरियाँ तरंगों सी, पूनम - अमावस के ज्वार - भाटे सी, क्षण - क्षण तुमसे टकराकर, आंदोलित कर तुम्हें गतिमान करते रहेंगी और तुममें प्रेम को संचारित करते रहेंगी। " ......:))))

===== © वंदना दुबे
 — 
Photo: " प्रेम " मन को अलंकृत करता है। कनक सी चमक, अलौकिक दिव्यता और मन का आवरण है , प्रेम में रहना या जीना एक शाश्वत अतुल्य आनंद का अनुभव है, यह व्यक्तित्व की शुद्धतम स्थिति, जिसमें संवेदनायें - भावनायें एक दूसरे से जुड़ी रहती है, भावों को समझने की परख होनी चाहिये। प्रेम मौन भी हो तो दॄष्टि का सुख और स्पर्श का सुख का अपना अनूठा आनंद है जिसमें दोनों ही आनंदित होते हैं ,~~~~~~~"प्रेम " ईश्वर का दिया उपहार है चिन्तन हैं, मनुहार है , प्रेम को परिभाषित करना या गढ़ना बहुत कठिन है , स्पर्श का सुख ,दृष्टि का सुख , मिलन का सुख और वियोग का सुख सारे रसों से सराबोर है प्रेम। सावन की पहली बूंदों जैसा  ~~~~~

प्रेम शब्द जब आचरण से मंडित होता है तो वह जप और मंत्रों की शक्ति प्राप्त कर लेता है ..हमारे विचार ही हमारे शब्द बनते है ... शब्दों से भाव पनपता है भाव ही कर्म और प्रेम की रचना करते हैं ह्रदय के निर्मल मन से जो सुर निकलेंगे वे अतभुत गगनगामी तुल्य होंगे !!!

 मुझे तो प्रेम प्रकृति के हर रंग में दिखता  है " तुम्हारे प्रेम  को पढ़ने की सामर्थ्य मुझमें है , बस तुम मूक रहो प्रशांत सागर से, मेरी शब्द लहरियाँ तरंगों सी, पूनम - अमावस  के ज्वार - भाटे सी, क्षण - क्षण तुमसे टकराकर, आंदोलित कर तुम्हें गतिमान करते रहेंगी  और तुममें प्रेम को संचारित  करते रहेंगी। "  ......:)))) 

===== © वंदना दुबे

यादों का सिलसिला ~~
बार - बार चला जाता है
क्यूँ ???
बीते कल की ओर
और
बेसाख्ता !!!
इन नयनन में
नमी ,
कुछ ख़ुशी की
कुछ गम की
कुछ आशायें !!!
आने वाले कल की

Continuation of memories ~ ~
Again and again goes
Why???
Yesterday the
And !!!
In these eyes
Humidity,
Some pleasure
Some of sorrow
Some expectations!!
Of tomorrow ~
Vandana ~
 
Photo: यादों का सिलसिला ~~
बार - बार चला जाता है
क्यूँ ???
बीते कल की ओर
और
बेसाख्ता !!!
इन नयनन में 
नमी , 
कुछ ख़ुशी की 
कुछ गम की 
कुछ आशायें !!!
आने वाले कल की 

Continuation of memories ~ ~ 
Again and again goes 
Why??? 
Yesterday the 
And !!! 
In these eyes 
Humidity, 
Some pleasure 
Some of sorrow 
Some expectations!! 
Of tomorrow ~ 
Vandana ~

मेरे मनहर ..!!!
जब कभी आप
नींद में मुझे
बिना मिले ही
बिना देखे ही
छू जाते हो.........

कपकपा जाती हूँ मैं
अपने हीं चादर में उलझकर .........
ना जाने कितने
सतरंगी सपने
मेरे नयनों में
समा जाते हैं........

मुझे भी पता है
उन सपनों की
कोई मंजिल नहीं है...........

ये रिश्ते ,
पानी में चलने जैसे
पवन में उड़ने जैसे
धरती अम्बर क्षितिज से
दृष्टि गोचर अंतहीन
सागर की लहरों का नाद जैसे ~~~~~~

.......

नींद खुलते ही
तुम्हारी छबि विलुप्त
हो जाती है
नयन डबडबा जाते हैं.......

काश !!!
ऐसा हो पाता और
हम दोनों के मध्य होती
मौन अभिव्यक्ति ……

-- © --
वंदना दुबे —
Photo: मेरे मनहर ..!!! 
जब कभी आप 
नींद में मुझे 
बिना मिले ही 
बिना देखे ही 
छू जाते हो.........

कपकपा जाती हूँ मैं
अपने हीं चादर में उलझकर .........
ना जाने कितने 
सतरंगी सपने 
मेरे नयनों में 
समा जाते हैं........

मुझे भी पता है
उन सपनों की
कोई मंजिल नहीं है...........

ये रिश्ते ,
पानी में चलने जैसे 
पवन में उड़ने जैसे 
धरती अम्बर क्षितिज से 
दृष्टि गोचर अंतहीन 
सागर की लहरों का नाद जैसे ~~~~~~

.......

नींद खुलते ही 
तुम्हारी छबि विलुप्त 
हो जाती है 
नयन डबडबा जाते हैं....... 

काश !!!
ऐसा हो पाता और 
हम दोनों के मध्य होती 
मौन अभिव्यक्ति ……

-- © --
वंदना दुबे —

Feeling Depressed ..........   

कानपुर हत्याकांड पर मेरी कलम से -----------

हमारे जन्म - सम्बन्ध या रक्त - सम्बन्ध पीढ़ी दर पीढ़ी होते हैं, उन्हें सहेजना हमारा परम कर्त्तव्य है हमारे आचार, विचार, व्यवहार, संस्कार और धर्म को अगले आने वाले अपने कुल को सम्प्रेषित करना हमारा नैतिक दायित्व है, और हम सब इसका पूरी तन्मयता से निर्वहन भी करते हैं, जैसी नीव हम डालेंगे !!! रिश्तों की जड़ता भी उतनी मजबूत होगी।

इसके विपरीत मित्रता और प्रेम के शाश्वत सम्बन्ध हमारे निर्मित किये होते हैं, जिनमें भावनायें, सम्वेदनायें, आत्मीयता, प्रघाड़ता होती है जो क्षण - क्षण हमें खुशियाँ और शांति प्रदान करती हैं, और सुखद स्वप्नों की सैर कराती है , ये रिश्ते पूर्णतया ऐक्छिक होते हैं, दार्शनिक दृष्टि डालें तो समाज इन रिश्तों के लिये उदात्त कभी भी नही रहा, हमेशा समाज ने जाति, पंथ और आर्थिक स्तर में संबंधों को जकड़ना चाहा।
समाज के इस त्रुटिपूर्ण रवैये से प्रेम की सहजता, निर्मलता, पवित्रता, नैसर्गिता प्रभावित होती है और होती रहेगी। समाज में फैली हुयी सारी विपरीत परिस्थितियां विरोधाभास और गलत व्याख्याओं के कारण ही सामने आ रही हैं, समाज के डर से प्रेम को छिपाना सीमा तोड़ने का डर न जाने कितनी मासूमों की जिंदगियां तबाह कर रहा है। कृपया अपने विचार भी दें !!!!
_/\_

© ~~~ Vandana Dubey
 —
Photo: Feeling Depressed  .......... :( :( :( 

कानपुर हत्याकांड पर मेरी कलम से -----------

हमारे जन्म - सम्बन्ध या रक्त - सम्बन्ध पीढ़ी दर पीढ़ी होते हैं, उन्हें सहेजना हमारा परम कर्त्तव्य है हमारे आचार, विचार, व्यवहार, संस्कार और धर्म को अगले आने वाले अपने कुल को सम्प्रेषित करना हमारा नैतिक दायित्व है, और हम सब इसका पूरी तन्मयता से निर्वहन भी करते हैं, जैसी नीव हम डालेंगे !!! रिश्तों की जड़ता भी उतनी मजबूत होगी। 

इसके विपरीत मित्रता और प्रेम के शाश्वत सम्बन्ध हमारे निर्मित किये होते हैं, जिनमें भावनायें, सम्वेदनायें, आत्मीयता, प्रघाड़ता होती है जो क्षण - क्षण हमें खुशियाँ और शांति प्रदान करती हैं, और सुखद स्वप्नों की सैर कराती है , ये रिश्ते पूर्णतया ऐक्छिक होते हैं, दार्शनिक दृष्टि डालें तो समाज इन रिश्तों के लिये उदात्त कभी भी नही रहा, हमेशा समाज ने जाति, पंथ और आर्थिक स्तर में संबंधों को जकड़ना चाहा।
समाज के इस त्रुटिपूर्ण रवैये से प्रेम की सहजता, निर्मलता, पवित्रता, नैसर्गिता प्रभावित होती है और होती रहेगी। समाज में फैली हुयी सारी विपरीत परिस्थितियां विरोधाभास और गलत व्याख्याओं के कारण ही सामने आ रही हैं, समाज के डर से प्रेम को छिपाना सीमा तोड़ने का डर न जाने कितनी मासूमों की जिंदगियां तबाह कर रहा है। कृपया अपने विचार भी दें !!!!
_/\_

© ~~~ Vandana Dubey

सुबह - सवेरे
स्वच्छंद
साँवरे - सावन
की सर्र - सर्र सरसराती
हवाओं के साथ
जल - बिन्दु 
भिगो गयी मुझे ~~~
कि अचानक
मौसम ने ली
अंगराई !!
सूरज ने इंद्रधनुषी छटा बिखराई
यूँ लगा ~~~
आचमन कर लिया मैंने
तुम्हें धारण कर लिया मैंने
मानों - मौन मधु
सरस हो गया !!!

===== © वंदना दुबे
 —
Photo: सुबह - सवेरे
 स्वच्छंद
साँवरे  - सावन 
की सर्र - सर्र सरसराती 
हवाओं के साथ 
जल - बिन्दु 
भिगो गयी मुझे ~~~
कि  अचानक 
मौसम ने ली 
अंगराई !!
सूरज ने इंद्रधनुषी छटा बिखराई 
यूँ लगा ~~~
आचमन कर लिया मैंने 
तुम्हें धारण  कर लिया मैंने 
मानों - मौन मधु
 सरस हो गया !!!

===== © वंदना दुबे