Thursday, 17 December 2015

व्याख्या 
'तुम्हारे ,
मनोभावों की 
आज भी वही .... 
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शनै : शनै :
सम्पूर्ण - समपर्ण
से भी तनिक भी
नहीं हुये द्रवित ....
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फिर क्या शेष !!!
हमारे मध्य
मेरा विश्वास जो
लौह सा शक्तिवान
तुम पर
पर तुम सख्त अप्रणयी ही रहे ....!!!
= प्रेम ===
प्रेम ना बाड़ी उपजे ।
प्रेम ना हाट बिकाय ॥
प्रेम मात्र एक अनुभूति है.....
प्रेम सहज है, पर आसान नहीं,
प्रेम सूर्योदय सदृश्य जिसकी अरुणायी तन - मन को पुलकित, प्रफुल्लित और प्रकाशित करती है ,प्रेम के बदले प्रेम की मनोकामना करना प्रेम नहीं ।
प्रेम दिव्य आनंद की अनुभूति है जो अश्रुओं ,संवेदनाओं ,भावनाओं ,करुणा ,विश्वास और सम्मान से भरा हुआ है आत्मा को छूता है, इसके अहसास से मन की वीणा में यमन की ताने गूँजती हैं , कई बार मौन में भी अपना आभास करा जाता है।
प्रेम उस ऊष्मा के समान है जो प्रत्येक सम्बन्ध में प्रबुद्ध है , प्रेम शुद्ध उत्कृष्ट भाव है प्रेम सरलता और सहजता का व्यापक बोध है , " रिचर्ड बेक " के अनुसार " अपने प्रेम को स्वछंद छोड़ दें यदि वो आपका है तो आपके पास आएगा वर्ना वो आपका कभी था ही नहीं ".... प्रेम की अनंतता , प्रघाड़ता , सरसता , आत्मीयता निशब्द है....जो एक शाश्वत सत्य है मरणोपरांत भी उसकी ख़ुशबू जगत महसूस करता है ....:)))) —

Monday, 19 October 2015

सावन भादों बीत गये अब 
सुबह -सवेरे 
गुलाबी ठंडक 
और 
मखमली काई 
खपरैलों पर,
बीती हुयी बरखा
की "खैर " जान
रही हो जैसे ..................... !!!
जलनिधि की लहरों सी
तेरी यादें
पैरों से टकराकर
आंदोलित कर
क्षण -क्षण
तेरा शीतल आभास
करा जाती हैं
हमें
और हम
चकित रह जाते हैं
कितनी खूबसूरत सी लगती हैं लहरें …… !!!
~~ ©2015वंदना दुबे ~~~

Monday, 24 August 2015

कारे-कारे बादल
  नभ पर छाये
बन कर चादर ~~~ !

दूर कहीं
क्षितिज पर
इन्द्रधनुष ने
पर फैलाये ~~~ !

घन -रस की मीठी फुहार
आ गयी बरखा बहार ~~
बरगद के झूले
हमने झूले
खेतों की हरीतिमा
देख
नैन मेरे भर आये ~~ !

ये" श्रावण"
कभी न जाये
गोधूलि की बेला में
हम मंद -मंद मुस्काये
हम मंद - मंद मुस्काये ~~~ !!!

Sunday, 23 August 2015

वो सावन 
का 
नम - नम 
सा अहसास 
भिगो गया "मन"
के किसी कोने को
लाल डोरियाँ फ़िर छलछला
उठी ;;;;;;;;
कोई जान भी ना पाया
नैन बारिश से गीले
या "अश्रु " से ........... !!!
जीवन की लम्बी डगर पर अति- संवेदनशील होना कई बार हमें आहत करता है ... हम भाव-विभोर से चकित रह जाते हैं....... एकांत और अकेलेपन को ही अपना साथी बनाने की कोशिश करते हैं...... प्रकृति की गोद उसका सतरंगी परिवेश और पाखियों का कलरव हमें जीवंत और प्रफुल्लित बनाये रखता है।
चल कहीं दूर .....
मन बावरा 
फिर उदास :(((
चल कही दूर .......
जहाँ कोई न हो
कोई अपना न हो
फिर हम दुखी न हों
चल कहीं दूर .....
अपनों से छलना
मन का टूटना
सपनों का बिखरना
विश्वास पर न खरा उतरना
चल कही दूर .....
भाव - विभोर मन
उल्लास गुम
गुमसुम हम
चल कहीं दूर ......
हम परिंदों से मसरूफ़ क्यूँ नहीं
हम नदी से अल्लहड़ क्यूँ नहीं
हम पवन से चंचल क्यूँ नहीं
चल कहीं दूर ...
चल तू
सुनसान रातों में
सितारों की छाँव में
सिन्दूरी लालिमा में
सरिता तट में
वीरान कानन में
चल कहीं दूर ~~~~~