फ़िर वही कुहासा फिर थर -थर थरथराई धरा बसंत का गमन होने को है लगता है शिशिर ने दस्तक दी मौसम ने ली फिर अंगराई !!!
फूटते हैं अंतर्मन से नित नये - नये प्रेम के पर्याय उतारती उन्हें कोरे पन्नों में जो तुम पर अप्रभावी आज भी........ ~~~~~ और तुम उतने ही पाषाणवत रहे " मनहर "
वंदना दुबे ~~
एक ऐसा रिश्ता ढूढ़ती नित -दिन तुमसे जो हो लबालब विश्वास प्रेम सान्निध्य जो अनूठा अटूट रहता आजीवन ~~
भोर भये और सांझ ढले नित -दिन आते हो याद मुझे ........ अपनी " यादों " से कह दो हमें न सताया करें तारों की गिनती भी याद है जाग - जाग कर वापस चली जाया करें हरे न चैन मेरे पास न आयें !!