Thursday 17 April 2014


फ़िर वही कुहासा
फिर थर -थर थरथराई धरा
बसंत का गमन होने को है
लगता है शिशिर ने दस्तक दी
मौसम ने ली फिर अंगराई !!!

फूटते हैं
अंतर्मन से
नित
नये - नये
प्रेम के पर्याय
उतारती
उन्हें कोरे पन्नों में
जो
तुम पर अप्रभावी आज भी........

~~~~~
और तुम उतने ही
पाषाणवत रहे
" मनहर "



वंदना दुबे ~~

एक ऐसा रिश्ता ढूढ़ती
नित -दिन तुमसे
जो हो लबालब
विश्वास
प्रेम
सान्निध्य 
जो अनूठा अटूट रहता आजीवन ~~

वंदना दुबे ©

सिंदूरी सूरज
सुबह - सुबह
तुम सदृश्य
अपूर्व सौंदर्य भरपूर 
वही नूर
वही गुरुर
हमसे कितनी दूर
जैसे तुम
सुदूर~~~~

© --

वंदना दुबे
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यादें
@@@@

भोर भये
और
सांझ ढले 
नित -दिन
आते हो याद मुझे ........
अपनी " यादों " से कह दो
हमें न सताया करें
तारों की गिनती भी याद है
जाग - जाग कर
वापस चली जाया करें
हरे न चैन
मेरे पास न आयें !!

© --

वंदना दुबे
 

जब शाम ढले तो दिल में आओ
जब सितारों की बारात चले
तो दिल में आओ
बिखरी चान्दिनी में हमें न सताओ ~~

वंदना
 —
ऊंचाई वो ,
जहाँ से अपने भी नज़र आयें
यादें वो ,
वो तनहायी में साथ निभाएं
अच्छायी वो ,
जो बिगड़े संबंधों को बनाये 
और सालों - साल निभाये !!!

............ वंदना दुबे
 —