पाषाण का दुःख “
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युगों-युगों से
तप-तप कर
आंधी -पानी -तूफ़ान
सह-सह कर
लोगों का प्यार न पाया
पाषाण ही कहलाया -------
कभी विभ्राट गिरि
उत्तुंग हिमशिखर
कभी विंध्याचल का
अपलक दर्शन
नदियों का तात होकर भी
लोगों का प्यार न पाया
पाषाण ही कहलाया -------
सरिता तट पर
शिला बना
लोगों ने शीश नवाया
कभी
बहुरंगी रत्न बन
बहुतों का भाग्य जगाया
आत्मरत्न न बन पाया
छू -छू सबने बहुत सराहा
पर
उपमा पाषाणवत की ही मिली
लोगों का प्यार न पाया ——
रेत बना बिखरा
और बिखरता चला गया
नन्हों से हाथों से
बस
फिसलता चला,
पाषाण ही कहलाया ------
~~ वंदना दुबे ~~
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