Saturday 10 December 2016

"मैं उड़ना चाहूँ "

अपनी जिंदगी अपनी स्त्रियों ...... अपनी उड़ान...... अपना मुकाम..... अपनी पहचान ...... अपने अरमान.......
ये शब्द सुनने में जितने मोहक प्रतीत होते हैं असल जिंदगी और समाज में उतने ही कठिन कोई भी व्यक्ति अपने मुताबिक़ कहाँ जीवन व्यतीत कर पाता है, सामाजिक दायरे से बाहर हर क्षण कोई क्या कहेगा, कोई क्या सोचेगा, अपने को "स्टेनलेस" साबित करने के अथक प्रयास ...... इन्ही विचारों में ग़ुमसुम सी पल-पल चलती और कटती जिंदगी .....!!!
स्त्रियों की हालत तो समाज में और भी नाजुक "बहुत कठिन है डगर जीवन की" हर पग सम्भाल कर रखना पड़ता है। हर उम्र में........बचपन में माँ बाप का डर, युवावस्था में पति का, और वृद्धावस्था में बच्चों का, बंदिशें ही बंदिशें और दायरे सामजिक व्यवस्था ही जवाबदेह है समाज पुरुषसत्ता ,या पितृसत्ता के नियमों पर ही चलता है....... जीवन उतना ही दुरूह यानि पुरुष के मदद के बगैर उसका जीवन बेमानी है| समाज भी अच्छी नज़रों से नहीं देखता, कि कोई कमी होगी तभी अकेली जी रही है। पुरुष तो पुरुष औरतें भी यकीन नहीं कर पाती कि अकेली लड़की खुशहाल जीवन कैसे जी सकती है।
पुरुष की सोच में अकेले रहने का निर्णय अपनी इच्छा से हो ही नहीं सकता वे मान बैठते हैं की शादी टूटी होगी , या कोई बड़ी अप्रत्याशित दुर्घटना , अनहोनी हुयी होगी " बेचारी " शब्द की उपमायें देने से भी नहीं चूकते। अकेले रहकर जो रहना चाहती हैं अपने कार्यों को पूरी तल्लीनता ,और तत्पर होकर सम्पादित करती हैं। बाकी जिंदगी में उनके कथनानुसार न कोई तनाव , न झंझट, न डर , न कलह , न परिशोध मन का काम , अपने तरीके और सलीकेऔर समय से रहना।
हम ये मानते हैं कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण सहज ही होने वाली प्रक्रिया है। हाँ पर ये बिलकुल आवश्यक नहीं की ये आकर्षण दैहिक ही हो, स्वाभाविक है भावनात्मक साथ के सहारे के लिए भी आकर्षण हो सकता है अच्छे और सच्चे मित्र के रूप में। मित्र की चाहत का अर्थ ये कदापि नहीं कि महिलाओं की हस्ती ख़त्म ,और वे अकेले जीवन यापन नहीं कर सकती हैं।अकेली औरत के अस्तित्व को पुरुष प्रधान समाज कभी नहीं अपनाएगा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक उपज है। इस प्रकार की सोच और बदलाव को समाज आने में युग लगेगा अभी।
मूलरूप से हमारी संस्कृति ही और सामजिक ढांचा यह सम्पूर्ण रूप से जवाबदार है मानव की ऐसी संकीर्ण सोच के लिए। लता मंगेशकर,क़्वीन एलिज़ाबेथ, हार्पर ली, मदर टेरेसा और अन्य भी अनन्य विभूतियाँ हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र में सर्वोच्चता हासिल की और अमरत्व तत्त्व से विभूषित हुए। राहें कठिन हैं, सरल नहीं, आसान नहीं पर असम्भव भी नहीं। वैदिक काल में भी जितने भी देवता थे तो देवियाँ भी अम्बा, सरस्वती , शाम्भवी , वैदेही, ब्रह्माणी आदि पावनता, धन, शक्ति, ज्ञान, चारित्रिक विशेषता और रूपता के लिए प्राचीन काल से पूजी जाती रही हैं। नदियों की और देखें तो शिव -पुत्री माँ नर्मदा "कुंवारी हैं जिनके सम्बन्ध कहा गया है.......... "नर्मदे तत दर्शनाथ मुक्ति " "नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु " कुंवारी महानतम हस्तियां गंगा में स्नान कर और नर्मदा के मात्र दर्शन से ही मानव मोक्ष प्राप्त करता है।
नारी आज भी सेक्स सिंबल के रूप में जानी जाती है उसकी प्रबुद्धता कम ही आंकी जाती है , हम विज्ञापन जगत में भी देखें तो हर उत्पादन में प्रचार -प्रसार के लिए नारी देह ही परोसी जा रही है। यू एस के आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते प्रतीत होते हैं ९९% महिला सेक्रेटरी और ९७% फ़ूड सर्विसिंग में वीमेन वर्कर, साथ ही उन्हें वेतन भी कम ही मिलता है पुरुषों की तुलना में....... । पुरुष महिलाओं को घर -गृहस्थी में ही सीमित रखना चाहता है उसकी आकांक्षायें और अभिलाषायें अधूरी रह जाती हैं। एक जुट होकर हमें जूझना ,लड़ना, तपना और निखर कर बिखरना होगा.......... तभी हम खुले अम्बर में धरा पर सांस लेकर उड़ सकेंगे, आशातीत सफलता हासिल कर हर्षित होंगे, हमारा कार्य गगनरूपी ऊँचाइयाँ प्राप्त करेगा हर्षित हमें मनोवांछित सफलता मिलेगी।
वंदना दुबे

Monday 19 September 2016

हिन्द की स्पंदन हिंदी ........!·
हिंदी दिवस की सभी गुणीजनों को अनेकानेक शुभकामनायें .... /\…
भारत एक बहुसांस्कृतिक देश है,जहाँ क्षेत्रीय भाषों के साथ -साथ हिन्द के हर कोने में हिंदी बोली और समझी जाती है ........... 14 सितम्बर 1949 को ही हिंदी को देवनागरी लिपि में भारत की कार्यकारी और राष्ट्रभाषा का दर्जा अधिकारिक रूप से दिया गया था, और तभी से देश में 14 सितम्बर का दिन "हिंदी दिवस" के रूप में संपूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है।

हिंदी भाषा में सुन्दरता बिखरी पड़ी है प्रकृति के अपरिमित और नैसर्गिक सौंदर्य के लिये हिन्दी जलागार जैसी अथाह और गहन है, इसमें करुणा , भाव, शांति, शक्ति, प्रीति और ऊर्जा सभी का समावेश है ......... अश्रु ,स्पंदन, विनोद,भाव सभी रूपों को हिंदी परिष्कृत करती है .........
चहुँओर विस्तृत है "शब्द शक्ति " नभ के कोने सी, बस उचित शब्दों के चयन की आवश्यकता है । हमारे भारत की भूमि की समृद्धिता और हरी- भरी वसुधा के लिए हिंदी भाषा किसी खजाने से काम नहीँ , बहुत से शब्दों का बहुरंगी सौंदर्य और भाव हमें अभिभूत करता है |

शब्दों की मिठास मन में शहद घोलती है । यमक और श्लेष हिंदी भाषा में भरे हुए हैं , उत्तम साहित्य पाठकों की आत्मा में विचार- पुंज जगाते हैं । वैसे भी हमारा भारतवर्ष प्राचीन काल से हिन्दी साहित्य और संस्कृति की खदान रहा है। इतिहास भरा पड़ा है उत्कृष्ट साहित्य और साहित्यकारों से, जिसका रसास्वादन हम आज भी करते हैं, उमंग से भरकर प्रसन्नचित्त होते हैं । हिंदी अमूल्य निधि है हमारी ......... हम सबके लिये .................... :)))

नमन और गर्व हमारी मातृ भाषा पर हिन्दुस्तान वासियों ......
जय- हिन्द, जय- भारत महान ..^^... !!!

Wednesday 29 June 2016

फादर्स डे पर मेरे और हर पिता को समर्पित ........../\........ !!!
पिता न जाने क्या कह दे और जीवन बदल जाये मेरे पिता बड़े ही आध्यात्मिक, सख्त, स्पष्टवादी और संगीतप्रेमी है, अनुशासन उनकी आत्मा में है I बचपन से लेकर आज भी, पापा की कर्मठता मेरी प्रेरणा -स्रोत रही है |
जीवन में जितना वे तपे है....... उससे कहीं बहुत ज्यादा सुख - समृद्धियाँ से हमारी परवरिश की है | पापा हिमालय से विशाल,अडिग व् कदम -कदम पर उनका नेह सावन की स्नेहमयी बूँदों सा बरसा है हम पर सदैव ।
पिता होते ही ऐसे हैं, जो हमें निर्देश,दिशा ,ज्ञान देते हैं , बिना जताए ,सूर्योदय से पहले उठना सूर्यदेव का आह्वान करना, अच्छा संगीत सुनना, प्रकृति - प्रेम उन्ही से सीखा और आत्मसात कर लिया। .
पापा ऊपर से अखरोट जैसे कठोर, सख़्त पर अंदर से अखरोठ जैसे ही गुणोँ की खज़ाना है, जीवन में नियमबद्धता, अनुशासन, आध्यात्म , सेवा , दान , करुणा , आशा, मदद और निरंतर क्रियान्वय रहने का भाव जीवन में उनसे ही आत्मसात किया।
कभी डरो नही बस आगे " एकला चलो " उन्ही से सीखा वे आज भी २ घंटे कुछ न कुछ पढ़ते है उनने कभी कुछ कहा नही , उन्हें देख ही हम सबने अनुसरण किया। उनका सबसे बड़ा " उपहार " कि हर मोड़ पर जीवन में हम पर भरोसा किया। और हमने भी उसकी गरिमा बनाये रखने का प्रयास किया।
हमेशा वे आज भी यही कहते है "जो करो श्रेष्ठ करो ",संघर्ष करो और अपनी जगह खुद बनाओ , लोंगो को परखने की जगह, विश्वास करो . ....., आज मै जो कुछ भी हूँ उनके अच्छे संस्कार मुझमें है , एक और अच्छी सीख लोंगों को क्षमा करना भी उनसे सीखा वे कहते है.....
" जो झुकते नहीं वे टूटते हैं ".
~~~ वंदना दुबे
हम आत्मावलोकन करें तो पाएंगे कि हमारे जीवन की श्रेष्ठता और मधुरता हमारी नैतिक क्रियाओं ,विचारों और जीवन में आने वाले कठिन कार्यों की का मधुर राग है ।
बीते कल में हमने किन स्वरों का गान किया और आज हम क्या रोपित कर रहे हैं ,हममें कितनी सृजनता, कर्मठता, संवेदनशीलता, करुणा, विवेकशीलता और ताउम्र अन्वेषणशील बने रहने की प्रक्रिया हमें एक सुनहरे आगामी कल का रास्ता दिखाती हैं |
हमने कितने चेहरों पर खुशियाँ बिखेरी ......... तूलिका ने कितने नये रंग रचे ........... लगातार विकसित होना और प्रगतिशील बने रहना......... हममें नयी चेतना का संचार करता है । जिससे निश्चित ही एक "निर्मल आनंद "की प्राप्ति सुनिश्चित है ।
मानव को बस अपने नियम और मान्यताएं तय करने होते हैं ।
=== वंदना दुबे

Thursday 18 February 2016

अब आ भी जाओ ....!
नव पात -पुष्प
नव लय , नव गान
नवल कण्ठ , नयी तान 
तुम संग
बसंत "" का राग -आलाप
अब आ भी जाओ ....!
खोयी दिशायें
महकी बयारे
बासंती हवाएँ
खिलखिलाई धरा
अब आ भी जाओ ....!
अवनि भी मुस्कायी संग -संग
सरसों भी बौराई हम -संग
जीवन में आ गए हैं सत-रंग
बसन्ती ऋतु"" में हम भी मगन
अब आ भी जाओ ...!
सुगन्धित हुये क्षण -क्षण
झरनों का ये कल-कल
कभी न हो ओझल
मन में नयी उमंग
अब आ भी जाओ ....!
मैं निर्झर सी चंचल
इठलाती
नर्तन करती
और "तुम "
जलागार से 
ग़हन ,अछोर, सौम्य
पर समाहित तो तुम में
ही होना मुझे
और
यही मेरी
नियति भी ..............!!!