अपनी जिंदगी अपनी स्त्रियों ......
अपनी उड़ान......
अपना मुकाम.....
अपनी पहचान ......
अपने अरमान.......
ये शब्द सुनने में जितने मोहक प्रतीत होते हैं असल जिंदगी और समाज में उतने ही कठिन
कोई भी व्यक्ति अपने मुताबिक़ कहाँ जीवन व्यतीत कर पाता है, सामाजिक
दायरे से बाहर हर क्षण कोई क्या कहेगा, कोई क्या सोचेगा, अपने को "स्टेनलेस" साबित करने के अथक प्रयास ...... इन्ही विचारों में ग़ुमसुम सी पल-पल चलती और कटती जिंदगी .....!!!
स्त्रियों की हालत तो समाज में और भी नाजुक
"बहुत कठिन है डगर जीवन की"
हर पग सम्भाल कर रखना पड़ता है। हर उम्र में........बचपन में माँ बाप का डर, युवावस्था में पति का, और वृद्धावस्था में बच्चों का, बंदिशें ही बंदिशें और दायरे सामजिक व्यवस्था ही जवाबदेह है समाज पुरुषसत्ता ,या पितृसत्ता के नियमों पर ही चलता है....... जीवन उतना ही दुरूह यानि पुरुष के मदद के बगैर उसका जीवन बेमानी है|
समाज भी अच्छी नज़रों से नहीं देखता, कि कोई कमी होगी तभी अकेली जी रही
है। पुरुष तो पुरुष औरतें भी यकीन नहीं कर पाती कि अकेली लड़की खुशहाल जीवन कैसे जी सकती है।
पुरुष की सोच में अकेले रहने का निर्णय अपनी इच्छा से हो ही नहीं सकता
वे मान बैठते हैं की शादी टूटी होगी , या कोई बड़ी अप्रत्याशित
दुर्घटना , अनहोनी हुयी होगी " बेचारी " शब्द की उपमायें देने से भी नहीं
चूकते।
अकेले रहकर जो रहना चाहती हैं अपने कार्यों को पूरी तल्लीनता
,और तत्पर होकर सम्पादित करती हैं। बाकी जिंदगी में उनके कथनानुसार न
कोई तनाव , न झंझट, न डर , न कलह , न परिशोध मन का काम , अपने तरीके और
सलीकेऔर समय से रहना।
हम ये मानते हैं कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण सहज ही होने वाली
प्रक्रिया है। हाँ पर ये बिलकुल आवश्यक नहीं की ये आकर्षण दैहिक ही हो,
स्वाभाविक है भावनात्मक साथ के सहारे के लिए भी आकर्षण हो सकता है अच्छे
और सच्चे मित्र के रूप में।
मित्र की चाहत का अर्थ ये कदापि नहीं कि महिलाओं की हस्ती ख़त्म ,और वे
अकेले जीवन यापन नहीं कर सकती हैं।अकेली औरत के अस्तित्व को पुरुष प्रधान
समाज कभी नहीं अपनाएगा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक उपज है। इस प्रकार की सोच
और बदलाव को समाज आने में युग लगेगा अभी।
मूलरूप से हमारी संस्कृति ही और सामजिक ढांचा यह सम्पूर्ण रूप से जवाबदार
है मानव की ऐसी संकीर्ण सोच के लिए।
लता मंगेशकर,क़्वीन एलिज़ाबेथ, हार्पर ली, मदर टेरेसा और अन्य भी अनन्य
विभूतियाँ हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र में सर्वोच्चता हासिल की और अमरत्व तत्त्व से विभूषित हुए। राहें कठिन हैं, सरल नहीं, आसान नहीं पर
असम्भव भी नहीं।
वैदिक काल में भी जितने भी देवता थे तो देवियाँ भी अम्बा, सरस्वती ,
शाम्भवी , वैदेही, ब्रह्माणी आदि पावनता, धन, शक्ति, ज्ञान, चारित्रिक
विशेषता और रूपता के लिए प्राचीन काल से पूजी जाती रही हैं।
नदियों की और देखें तो शिव -पुत्री माँ नर्मदा "कुंवारी हैं जिनके
सम्बन्ध कहा गया है..........
"नर्मदे तत दर्शनाथ मुक्ति "
"नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु "
कुंवारी महानतम हस्तियां गंगा में स्नान कर और नर्मदा के मात्र दर्शन से ही मानव मोक्ष प्राप्त करता है।
नारी आज भी सेक्स सिंबल के रूप में जानी जाती है उसकी प्रबुद्धता कम ही
आंकी जाती है , हम विज्ञापन जगत में भी देखें तो हर उत्पादन में प्रचार
-प्रसार के लिए नारी देह ही परोसी जा रही है।
यू एस के आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते प्रतीत होते हैं ९९% महिला सेक्रेटरी
और ९७% फ़ूड सर्विसिंग में वीमेन वर्कर, साथ ही उन्हें वेतन भी कम ही
मिलता है पुरुषों की तुलना में....... ।
पुरुष महिलाओं को घर -गृहस्थी में ही सीमित रखना चाहता है उसकी
आकांक्षायें और अभिलाषायें अधूरी रह जाती हैं।
एक जुट होकर हमें जूझना ,लड़ना, तपना और निखर कर बिखरना होगा..........
तभी हम खुले अम्बर में धरा पर सांस लेकर उड़ सकेंगे, आशातीत सफलता हासिल कर हर्षित होंगे, हमारा कार्य गगनरूपी ऊँचाइयाँ प्राप्त करेगा हर्षित हमें मनोवांछित सफलता मिलेगी।
वंदना दुबे
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