Thursday 12 March 2020

 पाषाण का दुःख “
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युगों-युगों से
 तप-तप कर 
आंधी -पानी -तूफ़ान 
सह-सह कर 
लोगों का प्यार न पाया 
पाषाण ही कहलाया -------

कभी विभ्राट गिरि 
उत्तुंग हिमशिखर 
कभी विंध्याचल का 
अपलक दर्शन 
नदियों का तात होकर भी 
लोगों का प्यार न पाया 
पाषाण ही कहलाया -------

सरिता तट पर 
शिला बना 
लोगों ने  शीश नवाया 
कभी 
बहुरंगी रत्न बन 
बहुतों का भाग्य जगाया 
आत्मरत्न न बन पाया 
छू -छू  सबने  बहुत सराहा 
पर 
उपमा पाषाणवत की ही मिली 
लोगों का प्यार न पाया ——

रेत बना बिखरा 
और बिखरता चला गया 
नन्हों से हाथों से 
बस 
फिसलता चला,
पाषाण ही कहलाया ------

~~ वंदना दुबे ~~
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मैं बसंती पवन  हूँ !


मैं बसंती पवन  हूँ, 
जाती ठण्ड की 
कुनकुनी धूप  लिए 
फिरूं मैं 
इधर- उधर 
बड़ी मनचली सी---- 
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पीत वसुधा 
पीत कुसुम 
तरुण आम्र की मंजरियाँ 
को करती शोभित 
खिली चमचमाती सब 
मैं बसंती पवन   हूँ -----

कोमल -मधुर हास -विलास 
"बसंत" का आलाप करती 
नव -तरंग छुई -मुई सी 
चपल मैं 
पुलकित करती  सृष्टि 
मैं बसंती पवन  हूँ ------

~वंदना दुबे ~
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