Friday 26 July 2019




फिर सावन का आगमन
श्यामल-श्यामल हुआ गगन
घनरस की धुन गुन-गुन ------

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बूंदों की अपनी शैली
अलबेली सी
अपना राग
अपना आलाप
कभी विलम्बित
मध्य
तो कभी द्रुत लय सा --------

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ऋतुराग मेघ का
छेड़े मन के तार
कहीं अतिवेग
तो रुनझुन भी
लहरों ने पायल खनकायी
सृष्टि शिल्पित हुयी
सजीले सावन में
सावन का आगमन
प्रिय से होगा  मिलन -------

वन्दना  दुबे 

Saturday 1 June 2019


                                                           -----मुझे मत जलाओ ----

मुझे मत जलाओ ------
मैं जल रही हूँ
विरहाग्नि में
प्रियतम के अकूत प्रेम में
बुला सको तो उन्हें बुलाओ
मुझे मत जलाओ ------

मानवी प्रीति  की अंतिम अभिव्यक्ति
"तुम"
तुम संग मैंने नापा
गगन के व्यास को
आकांक्षाओं के केंद्र तुम
आओ आओ !
स्नेह वर्षा से   भिगो जाओ
मुझे शांत कर जाओ
मुझे मत जलाओ  ------

Monday 13 May 2019

जब कभी सांझ ढले मैं छत पर जाती हूँ----एक और सूरज अपनी स्निग्ध हँसती धूप से विदा ले रहे होते हैं , तो आदित्य के अनुपम सौंदर्य पर दृष्टि अटक जाती है और मैं अपलक निहारती रह जाती हूँ |    तो दूसरी और आजकल प्रायः तरु भी बांह पसारे तेज़ पवन की अगवानी करते से प्रतीत होते हैं , पाखियों की कतारें गगन संजोती हैं --------    तो कभी रुनझुन सी बारिस की कुछ बूंदे वातावरण को सुरभित कर जाती हैं -----------  पीछे पलट कर देखो तो मयंक की मध्यम सी छवि दृष्टिगत होती है , इस भीषण गर्मी में भी वसुधा के रूप निराले------      मन दूर कहीं दूर चला जाता है तुम संग किये अनवरत -अविरल संवादों की और -------- सच है ना !!! " स्मृतियाँ भी मेहमान की तरह बेपरवाह होती हैं जब चाहे मन के द्वार खटखटाये चली जाती है"  और हम हतप्रद से,  घंटो बीत जाते हैं पता ही नही चलता |  कभी -कभी यूँ लगता है हमारे सारे कार्यों और क्रियाकलापों को सूर्यदेव ही नियंत्रित करते हैं और हम उन्ही के सहारे सारा जीवन जीते हैं तभी तो हम सभी आदित्य उपासक ! एक ही साक्षात ईश्वर जो दीखते हैं  और हम सबको संचालित करते हैं ….|

Monday 22 April 2019

"लेटर बॉक्स"


आजकल नहीं
दीखते
लाल-लाल "लेटर बॉक्स"
जो
बंद रखते थे
अपने अंदर,
असंख्य सतरंगी लिफाफों को -------
जिनके अंदर
होती थी, कुछ गुलाबों की पंखुरियाँ
भीनी सुगंध
बोलते शब्द
और कभी
अश्रु -जल चिन्ह
जो हमें यादों की सैर कराते थे -------
जिन्हें संजों रखते थे
हम सूटकेस के
जेबों में
या किसी किताब
के आँचल में
जब भी पढ़ते लवणजल
छलछलाते थे ,
आज भी बीते चलचित्र से
अपना अहसास करा जाते हैं --------
आज व्हॉट्स- अप सन्देश
जो अगले दिन डिलीट -------
ना भाव न अपनापन
बस कॉपी -पेस्ट --------

Friday 29 March 2019

“नदी के घर”
नदी के घर नहीं होते
धाराप्रवाह -धरा की धमनियों सी
चिरकाल से
उछलती -कूदती ( नर्मदा )
बहती चली आ रही ------
हर बिहान
शीतलता बिखेरती
कल-कल ध्वनि से
नई हो जाती हैं -----
कितने नगर बसाये
घाट बनाये
पार कराये
कभी ना ठहरी
न थकी
बस चलती रही
कभी पुण्यसलिला
सदानीरा
आनंददायनी
मोक्षप्रदायनी
कहलायी-----
जन-जन की
डुबकियां
आकांक्षायें
पूरी करती रही
अविरल-अनवरत
बहती रही
बहती रही
कोई घर नहीं कोई ठिकाना नहीं
नदी के घर नहीं होते ------
~~वंदना दुबे~~