Monday 13 May 2019

जब कभी सांझ ढले मैं छत पर जाती हूँ----एक और सूरज अपनी स्निग्ध हँसती धूप से विदा ले रहे होते हैं , तो आदित्य के अनुपम सौंदर्य पर दृष्टि अटक जाती है और मैं अपलक निहारती रह जाती हूँ |    तो दूसरी और आजकल प्रायः तरु भी बांह पसारे तेज़ पवन की अगवानी करते से प्रतीत होते हैं , पाखियों की कतारें गगन संजोती हैं --------    तो कभी रुनझुन सी बारिस की कुछ बूंदे वातावरण को सुरभित कर जाती हैं -----------  पीछे पलट कर देखो तो मयंक की मध्यम सी छवि दृष्टिगत होती है , इस भीषण गर्मी में भी वसुधा के रूप निराले------      मन दूर कहीं दूर चला जाता है तुम संग किये अनवरत -अविरल संवादों की और -------- सच है ना !!! " स्मृतियाँ भी मेहमान की तरह बेपरवाह होती हैं जब चाहे मन के द्वार खटखटाये चली जाती है"  और हम हतप्रद से,  घंटो बीत जाते हैं पता ही नही चलता |  कभी -कभी यूँ लगता है हमारे सारे कार्यों और क्रियाकलापों को सूर्यदेव ही नियंत्रित करते हैं और हम उन्ही के सहारे सारा जीवन जीते हैं तभी तो हम सभी आदित्य उपासक ! एक ही साक्षात ईश्वर जो दीखते हैं  और हम सबको संचालित करते हैं ….|